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देव
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आगम विषय कोश-२
मृग
कर देव ऊपर, नीचे या तिरछे लोक में जाने के लिए अपने उत्तरार्धलोक का अधिपति देवेन्द्र ईशान है। वह शलपाणि विमानों के साथ उड़ानें भरते हैं।-भ २/११८ का भाष्य) है, वृषभ उसका वाहन है।-प्रज्ञा २/५०, ५१ ८. शक्रेन्द्र-ईशानेन्द्र का प्रभुत्वक्षेत्र
देवराज ईशान को ऐसी दिव्य ऋद्धि कैसे मिलीपुव्वावरायया खलु, सेढी लोगस्स मज्झयारम्मि।
इस विषय में पांच प्रश्न पूछे गए हैं-१. क्या दिया? २. जा कणड दहा लोगं. दाहिण तह उत्तरदं च॥ क्या खाया? ३. क्या किया? ४. क्या आचरण किया? ५. साधारण आवलिया, मज्झम्मि अवद्धचंदकप्पाणं।
क्या सुना? इन प्रश्नों का उत्तर वृत्तिकार ने दिया है-अशन अद्धं च परक्खित्ते, तेसिं अद्धं च सक्खित्ते॥
आदि दिया, रूखा-सूखा आहार खाया, शुभ ध्यान आदि सेढीइ दाहिणेणं, जा लोगो उड्ड मो सकविमाणा।
किया और सामाचारी का आचरण किया। इससे पुण्य का हेट्ठा वि य लोगंतो, खित्तं सोहम्मरायस्स॥
उपार्जन कर मनुष्य देव बनता है। तामलि ने तप तपा और
वह ईशानेन्द्र बना, यह किंकिच्चा का निदर्शन है। सुबाहुकुमार (बृभा ६७२-६७४)
की ऋद्धि किंदच्चा का निदर्शन है। उसने सुमुख के भव में संपूर्ण लोक के मध्य में मन्दर पर्वत है। उसके ऊपर
मुनि को विशुद्ध आहार दिया था। उस दान के कारण उसने श्रेणि (एक प्रादेशिकी आकाश प्रदेश पंक्ति) पूर्व से पश्चिम
मनुष्य-आय का निबंध किया।-भ ३/३० का भाष्य तक आयत है, जो लोक को दो भागों में विभक्त करती है
वैमानिक देवलोक
इन्द्र मुकुट-चिह्न दक्षिणार्ध और उत्तरार्ध । दक्षिणार्ध का स्वामी देवेन्द्र शक्र और सौधर्म
शक्रेन्द्र उत्तरार्ध का स्वामी देवेन्द्र ईशान है।
ईशान
ईशानेन्द्र महिष ___अर्धचन्द्राकार सौधर्म और ईशानकल्प की मध्यमश्रेणि
सनत्कुमार
सनत्कुमारेन्द्र वराह की पूर्व-पश्चिम दिशा में तेरह प्रस्तटों में आवलिकाप्रविष्ट ।
माहेन्द्र या पुष्पावकीर्ण जो विमान हैं, उनमें से कुछ पर शक्र का और
ब्रह्मलोक
ब्रह्मेन्द्र
अज कुछ पर ईशान का प्रभुत्व है। जो वृत्ताकार विमान हैं, उन सब लांतक
लांतकेन्द्र पर शक्र का और त्रिकोण-चतुष्कोण विमानों में कुछ पर शक्र
महाशुक्र
महाशुक्रेन्द्र अश्व का तथा कुछ पर ईशान का प्रभुत्व है।
सहस्रार
सहस्रारेन्द्र (जे दक्खिणेण इंदा, दाहिणओ आवली भवे तेसिं।
आनत
प्राणतेन्द्र
भुजग जे पुण उत्तरइंदा, उत्तरओ आवली तेसिं॥
प्राणत
प्राणतेन्द्र पुव्वेण पच्छिमेण य, जे वट्टा ते वि दाहिणल्लस्स।
आरण
अच्युतेन्द्र तंस चउरंसगा पुण, सामन्ना हंति दोण्हं पि॥
अच्युत
अच्युतेन्द्र -देवेन्द्रस्तव गाथा २११, २१३) ग्रैवेयक
अहमिन्द्र मध्यश्रेणिगत आधे विमान अपने-अपने कल्प की
अनुत्तर
अहमिन्द्र बालमृग सीमा में तथा आधे विमान अपर कल्प की सीमा में स्थित हैं
सौधर्म और ईशान-इन दो कल्पों में ही देवियां उत्पन्न सौधर्मराज शक्र का श्रेणि की दक्षिण दिशा में तिर्यकलोक
' होती हैं। -प्रज्ञा २/४९-६३ ।। पर्यन्त, ऊर्ध्व दिशा में स्तूप और ध्वजासहित अपने विमानपर्यन्त
सौधम-ईशानकल्प के देव कायप्रवीचार (शरीर से तथा अधो दिशा में अधस्तन लोकान्तपर्यन्त प्रभुत्व होता है। विषयसुख भोगने वाले) होते हैं। तीसरे-चौथे कल्प के देव (दक्षिणार्धलोक का अधिपति देवेन्द्र शक्र है। वज्रपाणि,
देवियों के स्पर्शमात्र से, पांचवें-छठे के रूपदर्शन से, सातवेंपुरंदर, शतक्रतु, सहस्राक्ष, मघवा, पाकशासन-येशक्र के पर्याय
आठवें के शब्दश्रवण से तथा नौवें यावत् बारहवें कल्प के देव वाची नाम हैं। ऐरावण उसका वाहन है।
देवी के मानसिक संकल्पमात्र से कामतृप्ति का अनुभव करते
माहेन्द्र
सिंह
दर्दुर
भुजग
गेंडा गेंडा
वृषभ
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