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नौका
(वायु के चार प्रकार हैं - १. पुरोवात - पूर्वी वायु । २. पश्चाद्वात – पश्चिमी वायु । ३. मन्दवात - मन्दगति से चलने वाली वायु । ४. महावात - तेज चलने वाली वायु । द्वीपों और समुद्रों में चारों प्रकार की वायु होती है । किन्तु उन दोनों में एक साथ एक प्रकार की वायु नहीं चलती । द्वीप में यदि मंदवात चलता है तो समुद्र में महावात चलेगा । द्वीप में यदि महावात चलता है तो समुद्र में मंदवात चलेगा। इस विपरीत गति के कारण ही लवण समुद्र वेला का अतिक्रमण नहीं करता । - भ५/३१, ३६-३९) २. जलसंतरण के मार्ग : संक्रम, संघट्ट आदि संकम थले य णोथल.... ॥...... एगंगिय चल थिर पारिसाडि सालंबवज्जिए सभए । पडिपक्खेसु य गमणं, तज्जातियरे व संडेवा॥ नदिकोप्पर वरणेण व, थलमुदयं णोथलं तु तं चउहा । उवलजल वालुगजलं, सुद्धमही पंकमुदगं च ॥ लत्तगपहे य खुलए, तहऽद्धजंघाएँ जाणुउवरिं च । वे य लेववरिं,
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(बृभा ५६४०, ५६४२-५६४४)
जंघद्धा संघट्टो, णाभी लेवो परेण लेवुवरिं ।'' (निभा १९५ )
नदीसमुत्तरण के तीन पथ हैं१. संक्रम - एक या अनेक फलक आदि से निर्मित सेतु । अनेकांगिक, चल, परिशाटि, निरालम्ब और भययुक्त संक्रम पथ से नहीं जाना चाहिये। जो संक्रम एकांगिक, स्थिर, अपरिशाटि, सालम्ब और भयमुक्त हो, उसी से नदी आदि को पार करना चाहिये । संक्रम का ही एक भेद है० संडेवक - इसके दो भेद हैं- तज्जात ( वहीं प्राप्त व्यवस्थित निक्षिप्त शिला आदि) और अतज्जात (अन्य स्थान से लाकर स्थापित की गई ईंटें आदि) । २. स्थल - - नदीकूर्पर या वरण से जल का परिहार करते हुए गमन करना । आकुण्ठित कूर्पर के आकार का वलन कूर्पर तथा जल पर कपाट डालकर किया गया पालिबंध वरण कहलाता है।
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३. नोस्थल - इसके चार प्रकार हैं
० उपलजल - नीचे पत्थर, ऊपर जल ।
वालुकाजल - नीचे बालू, ऊपर जल ।
शुद्धोदक - नीचे शुद्ध पृथ्वी, ऊपर जल ।
पंकोदक-नीचे कर्दम, ऊपर जल । पंकोदक के अनेक प्रकार हैं
• लत्तक पथ - जितनी मात्रा में अलत्तक से पैर रंगा जाता है, पथ में उतना मात्र कर्दम ।
• खुलकमात्र - पैर के टखने प्रमाण जल ।
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जंघार्ध / संघट्ट- अर्ध जंघाप्रमाण जल ।
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जानूपरि — जानुमात्र जल ।
० लेप - नाभिप्रमाण जल ।
लेपोपरि- नाभि से ऊर्ध्ववर्ती जल ।
पूर्वं स्थलेन गन्तव्यम्, तदभावे संक्रमेण, तदभावे नोस्थलेनापि । (बृभा ५६४६ की वृ)
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आगम विषय कोश - २
पहले स्थलमार्ग (तीव्र वेगवती नदी, भयंकर जलजंतु आदि अपायों से रहित पथ) से, उसके अभाव में संक्रम से और संक्रम के अभाव में नोस्थल से भी जाया जा सकता है। ३. अन्य मार्ग के अभाव में जलमार्ग गमन
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जत्थ अचित्ता पुढवी । जोणिपरित्त थिरेहिं ॥ ..अक्कंत-थिरसरीरे, णिरच्चएहिं तु गंतव्वं ॥ तेऊ - वाउ विहूणा,
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........ आउक्काए णियमा वणस्सती अत्थि तम्हा तेण मा गच्छतु । वणस्सतिणा गच्छतु । तत्थ वि परित्तजोणिएण थिरसंघयण" । "तेउ वाउसु गमणस्सासंभवो।'' वणस्सतितसेसु विपुव्वं तसेसु थिरादिसु गंतव्वं, जतो वणे विणियमा तसा अस्थि ।
...पुढवि-आउ-वणस्सति-तसेसु चउक्कसंभवे कतरेण गंतव्वं ? पुव्वं अचित्तपुढवीए, तओ विरलतसेसु, तओ सचित्तपुढवीए, तओ वणस्सतिणा, तओ आउणा । ( निभा ४२४० - ४२४२ चू)
मुनि को जहां अचित्त पृथ्वी हो, उसी पथ से जाना चाहिये। दो मार्ग हों - जलमार्ग और वनस्पति मार्ग । जलमार्ग
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