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निग्रंथ
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आगम विषय कोश-२
पूर्वतप-संयम की अवस्था में ही देवाय. देवगति जे वि अ न सव्वगंथेहिँ निग्गया होंति केड निग्गंथा। आदि कर्मों का बंध होता है, उससे देवों में उपपात होता ते वि य निग्गहपरमा, हवंति तेसिं खउजुत्ता। है। उस कर्मबंध का हेतु है संग-संज्वलन क्रोध आदि। कलुसफलेण न जुज्जइ, किं चित्तं तत्थ जं विगयरागो। * पूर्व तप से देवायुबंध कैसे ?
संते वि जो कसाए, निगिण्हई सो वि तत्तुल्लो॥ द्र देव
जइ अभितरमुक्का, बाहिरगंथेण मुक्कया किह णु। ९. अनिदानता सर्वत्र श्रेयस्करी
गिण्हंता उवगरणं, जम्हा अममत्तया तेसु॥ ..."सव्वत्थ भगवया अनियाणया पसत्था॥
(बृभा ८३२, ८३६-८३८) (क ६/१९) निग्रंथ वे हैं, जो सपाप बाह्य और आभ्यन्तर ग्रंथ से भगवान् ने अनिदानता को सर्वत्र प्रशस्त कहा है। मुक्त हैं। जो आभ्यन्तर ग्रंथ से सर्वथा मुक्त नहीं हैं, किन्तु अनियाणं निव्वाणं, काऊणमुवट्ठितो भवे लहुओ।
क्रोध आदि दोषों को जानते हैं और उन पर विजय पाने का पावति धुवमायातिं, तम्हा अणियाणया सेया॥
। प्रयत्न करते हैं, वे भी निग्रंथ हैं। इह-परलोगनिमित्तं, अवि तित्थकरत्तचरिमदेहत्तं ।
सर्वग्रंथ से मुक्त न होने पर भी कुछ निग्रंथ कर्मक्षय
(उदयनिरोध और उदयप्राप्त के विफलीकरण) के लिए उद्यत सव्वत्थेसु भगवता, अणिदाणत्तं पसत्थं तु॥
तथा निग्रहप्रधान होते हैं, वे निग्रंथ कहलाते हैं। (बृभा ६३३३, ६३३४)
वीतराग कषायमुक्त होते हैं अतः कषायफल (परुष अनिदानता से निर्वाण होता है। निदान करके जो पुनः
भाषण, नयनविकार, मुखविकार आदि) के साथ उनका कोई निदान नहीं करने का संकल्प स्वीकार करता है, उसे भी ।
संबंध न हो तो उसमें क्या आश्चर्य ? कषाय विद्यमान होने मासलघु प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। जो निदान करता है, वह
पर भी जो उसके निग्रह का प्रयास करते हैं, वे सरागसंयत यद्यपि उसी भव में सिद्धि गति को प्राप्त करना चाहता है.
भी निर्ग्रन्थ हैं, वीतरागतुल्य हैं। फिर भी वह अवश्य पुनर्जन्म को प्राप्त करता है। इसलिए
निर्ग्रन्थ आभ्यन्तर ग्रन्थ से मुक्त होते हैं पर वे भी अनिदानता ही श्रेयस्करी है।
वस्त्र आदि उपकरण रखते हैं । ऐसी स्थिति में वे बाह्य ग्रन्थ इहलोक संबंधी चक्रवर्ती आदि के भोगों के निदान
से मुक्त कैसे? इसका हेतु देते हुए आचार्य कहते हैं-वस्त्र तथा परलोक संबंधी इन्द्र, सामानिक आदि महर्द्धिक देवों के
आदि के प्रति अमूर्छा ही निर्ग्रन्थता का मूल है। भोगों के निदान का तो प्रतिषेध है ही, भवांतर में तीर्थंकरत्व
..."इरियासमिए से णिग्गंथे.... मणं परिजाणाइ से यक्त चरम देह की प्राप्ति की आशंसा का भी निषेध है। णिगंथे. जे यमणे अपावर ति....जे वडं परिजाणड से अर्हतों ने अभिष्वंगविषयक सब प्रयोजनों में अनिदानत्व को
णिग्गंथे, जा य वई अपावियत्ति....."आयाणभंडप्रशस्त कहा है।
मत्तणिक्खेवणासमिए से णिग्गंथे "आलोइयपाण(सनिदान के चारित्र नहीं होता, क्योंकि निदान के गोगोई
क्याक निदान क भोयणभोई से णिग्गंथे अणुवीइ-भासी से णिग्गंथे. साथ हिंसा की अनुमोदना जुड़ी हुई है। निदानकृत कर्म कोहं परिजाणइ से निग्गंथे लोभं परिजाणइ से णिग्गंथे. अवश्य उदय में आता है।- श्रीआको १ निदान)
भयं परिजाणइ से णिग्गंथे हासं परिजाणइ से णिग्गंथे । निग्रंथ-कर्मोपादान के हेतुभूत ग्रंथों-बाह्याभ्यन्तर
(आचूला १५/४४-४८,५१-५५) आकर्षणों-आसक्तियों से मुक्त।
० निग्रंथ वह है, जो ईर्यासमित है। सावजेण विमक्का, सभितर-बाहिरेण गंथेण। ० मनपरिज्ञा से सम्पन्न-निष्पाप मन वाला है। निग्गहपरमा य विद, तेणेव य होंति निग्गंथा॥ ० वचनपरिज्ञा से सम्पन्न-निष्पाप निरवद्य वचन बोलने वाला है।
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