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नौका
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आगम विषय कोश-२
नौका से जल में गिरा दे, वह न सुमनस्क हो, न दुर्मनस्क हो, है। सूखी नौका में जलाकर्षण का भय रहता है। अतः आर्द्र मन में समता को धारण करे, मानसिक उतार-चढाव को प्राप्त न नौका हो तो उसकी मार्गणा करे, उ हो, उन अज्ञानियों को मारने-पीटने के लिए प्रयत्न न करे। जल नौकाउत्तरणस्थान से दो योजन तक स्थल हो तो में उतरकर हाथ से हाथ का, पैर से पैर का और शरीर (अंगोपांग) स्थलपथ से जाए, नौका से नहीं। नदीकर्पर आदि स्थल से शरीर का स्पर्श न करे (जिससे जलकायिक जीवों को परिरय कहलाते हैं। दो योजन तक परिरय हो तो उससे जाए, पीड़ा न हो), उन्मज्जन-निमज्जन न करे। यह जल मेरे कान, नौका से नहीं। यदि उस पथ में द्विविध स्तेन (शरीरस्तेन, आंख, नाक अथवा मुंह में न चला जाये (ऐसा न सोचे), उपकरणस्तेन) या द्विविध श्वापद (सिंह-व्याल) का भय संयमपूर्वक जल में प्लवन करे।
हो, तो डेढ़ योजन तक संघट्ट विधि से जाए, नौका से नहीं। ..."कुंभे दतिए तुंबे, णावा उडुवे य पण्णी य॥ उसमें भी कठिनाई हो तो योजन तक लेप से जाए, उसके एत्तो एगतरेणं तरियव्वं कारणंमि जातंमि।.... अभाव में अर्धयोजन तक लेपऊर्ध्व (नाभिप्रमाण जल) से णवाणवे विभासा तु, भाविताभाविते ति या। जाए। यदि वह भी सदोष हो या निर्बाध न हो तब नौका से तदण्णभाविए चेव, उल्लाणोल्ले य मग्गणा॥ संतरण करे। असती य परिरयस्स, दुविधा तेणा तु सावए दुविधे। ० संघट्टयतना-अर्ध जंघा प्रमाण जल में गमन के समय एक संघट्टण लेवुवरिं, दु जोयणा हाणि जा णावा॥ पैर जल में रखकर एक पैर स्थल यानी आकाश में रखे। तट .एगो जले थलेगो, णिप्पगलण तीरमुस्सग्गो॥ पर पहुंचकर, पानी सूख जाने पर (वस्त्र और शरीर से जल असति गिहि णालियाए, आणक्खेत्तुं पुणो वि परियरणं। बूंदें न गिरने पर) ईर्यापथिक कायोत्सर्ग करे। एगाभोग पडिग्गह, केई सव्वाणि ण य पुरतो॥ यदि कोई उत्तरमाण गृहस्थ न हो तो नालिका (चार ठाणतियं मोत्तूणं, उवउत्तो ठाति तत्थणाबाहे। अंगुल अधिक आत्मप्रमाण दण्ड) ग्रहण कर प्रतिचरण करता दति उडुवे तुंबेसु य, एस विही होति संतरणे॥ हुआ परतीर पर पहुंचे-यह जंघातरण विधि है।
एगं पायं जले काउंएगं थले।थलमिहागासं भण्णति ० नौसंतरण विधि-मात्रक और उपकरणों को एकत्र कर बंधन सामइगसण्णाए।उवउत्तो त्ति णमोक्कारपरायणो से बांधकर, प्रतिग्रह (पात्र) को पृथक् रखकर- सिक्कग को सागारपच्चक्खाणं पच्चक्खाउ य ठाति। जया पुण पत्तो अधोमुख कर, सिर से पैर तक प्रमार्जन कर नौका प तीरं तदा णो पुरतो उत्तरेज्जा'ण य पिट्ठतो "मझे कुछ आचार्य मानते हैं-मात्रक और पात्र-सब उपकरणों को उत्तरियव्वं। (निभा १९१-१९५, १९८, १९९ चू) एक साथ बांधे।
मुनि कारण होने पर (अन्य मार्ग न होने पर) कुंभ नौका में आगे न चढ़े, पीछे भी न चढ़े, नौका के मध्य से नदी पार करे. उसके अभाव में क्रमश: दृति, तुंब, उडुप,
में आरोहण करे। नौका में पुरतः देवता स्थान, मध्य में
म आराह और पर्णी से तथा पर्णी के अभाव में नौका से जलसंतरण करे। कूपक स्थान और पृष्ठतः तोरण-निर्यामक-स्थान होता है। कुंभ से नौका पर्यंत सब यान जल से भावित होने चाहिये। इन तीनों स्थानों का वर्जन कर अनाबाध स्थान में स्थित हो
मुनि यथाकृत-सहजरूप से नौका जा रही हो तो जाए। नमस्कार मंत्र में उपयुक्त हो साकार (अपवाद सहित) उसी से जाए। यथाकृत न हो तो साधु के निमित्त जाने वाली अनशन करे। नौका से जाए। पुरानी नौका प्रत्यपायबहुल होती है, अत: नई जब नौका तट पर पहुंच जाए ,तब न सबसे पहले नौका काम में ले। नौका उसी नदी आदि के जल से भावित उतरे, न सबसे पीछे उतरे, मध्य में उतरे। जलसंघटन न होने होनी चाहिए। अभावित नौका से जलविराधना होती है। अन्य पर भी उत्तीर्ण होकर ईर्यापथिक कायोत्सर्ग करे। जल से भावित होने पर वह उस जल के लिए शस्त्र बन जाती दृति, उडुप और तुम्ब द्वारा संतरण की भी यही विधि है।
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