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परिमंथ
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आगम विषय कोश-२
द्रव्य परिमंथ चार स्थानों में होता है
कमफंदण आउंटण, ण यावि बद्धासणो ठाणे॥ ०करण-साधकतम मन्थान आदि से दही आदि मथा जाता है। छेलिय मुहवाइत्ते, जंपति य तहा जहा परो हसति। ० अधिकरण-जिस मंथनी में दही मथा जाता है।।
कुणइ य रुए बहुविधे, . वग्घाडिय-देसभासाए॥ ० कर्ता-जो पुरुष या स्त्री दही का बिलौना करती है।
मुहरिस्स गोण्णणामं, आवहति अरिं मुहेण भासंतो" ० कर्म-दही-मन्थन से जो नवनीत आदि निकलता है।
आलोएंतो वच्चति, थूभादीणि व कहेति वा धम्म । इसी प्रकार भावविषयक परिमंथ चार स्थानों में होता है- परियट्टणाऽणुपेहण, न यावि पंथम्मि उवउत्तो॥ ० करण—जिस चपलता आदि की प्रवृत्ति से संयम मथा जाता है। तितिणिएँ पुव्वभणिते, इच्छालोभे य उवहिमतिरेगे।" ० अधिकरण-जिस आत्मा में वह मथा जाता है।
(बृभा ६३१९, ६३२१, ६३२४, ६३२७, ६३३०, ६३३२) ० कर्ता-जो साधु संयम का विनाश करता है।
१. कौकुचिक परिमंथु-इसके तीन प्रकार हैं-स्थान, शरीर, भाषा। ० कर्म-मथ्यमान संयम असंयम में परिणत हो जाता है।
० स्थान कौकुचिक-खंभे या दीवार पर चढ़ना, यन्त्रवत् निरंतर __यह परिमंथ जीव से अनन्य होने के कारण जीव ही है।
घूमना, पैरों का संकोच-विकोच करना, स्थिरता से नहीं बैठना। मन्थान द्रव्यपरिमंथ है। उससे जैसे दही मथा जाता है, वैसे
० शरीर कौकुचिक-हाथ, गोफणा, धनुष, पैर आदि से पत्थर आदि ही कौकुचिक आदि से दधितुल्य साधुसमाचार विनष्ट होता है।
फेंकना, भौंह, दाढ़ी, पुत आदि अवयवों को नर्तकी की भांति ३. परिमंथ के प्रकार
विकम्पित करना शरीर कौकुचिक है। छ कप्पस्स पलिमंथ पण्णत्ता, तं जहा-कोक्कडए संजमस्स पलिमंथू, मोहरिए सच्चवयणस्स पलिमंथू, चक्खुलोलुए तरह ध्वनि करना, दूसरों को हंसाने वाले वचन बोलना, मयूर, हंस, इरियावहियाए पलिमंथू, तिंतिणए एसणागोयरस्स पलिमंथू, कोयल आदि की आवाज में बोलना, उपहासकारी ध्वनि करना, इच्छालोभिए मुत्तिमग्गस्स पलिमंथू, भिज्जानियाणकरणे मालवी, महाराष्ट्री आदि देशी भाषाओं में इस लहजे से बोलना कि मोक्खमग्गस्स पलिमंथू।सव्वत्थ भगवया अणियाणया पसत्था॥ श्रोता हास्यरस में डूब जाएं-यह सब भाषा कौकुचिक है।
"मुक्तिः-निष्परिग्रहत्वम् अलोभतेत्यर्थः। मोक्ष- २. मौखरिक-यह गुणनिष्पन्न नाम है। अत्यधिक बोलने के दोष मार्गस्य सम्यग्दर्शनादिरूपस्य। (क ६/१९ वृ) से वह शत्रुओं को पैदा कर लेता है । यह सत्यभाषा का परिमंथु है। __साधुसमाचार के छह परिमंथु हैं
३. चक्षुलोल-मार्ग में स्तूप, देवकुल, आराम आदि को देखते हुए १. कौकुचित-चपलता करने वाला संयम का परिमंथु है।
या धर्मकथा, परिवर्तना और अनुप्रेक्षा करते हुए चलना, गतिक्रिया २. मौखरिक-वाचाल सत्य वचन का परिमंथु है।
में उपयुक्त नहीं होना। ३. चक्षुलोलुप-दृष्टिआसक्त ईर्यापथिकी का परिमंथ है। ४. तितिणिक-आहार, उपधि आदि के अनुकूल नहीं मिलने पर ४. तिंतिणक-यह भिक्षा की एषणा का परिमंथु है।
अपलाप करना।
(द्र छेदसूत्र) ५. इच्छालोभिक-अतिलोभी मुक्तिमार्ग/निर्लोभता का परिमंथु ५. इच्छालोभ-लोभ से अभिभूत होकर गणना और प्रमाण से
अतिरिक्त उपधि रखना। ६. भिध्यानिदानकरण-आसक्तभाव से किया जाने वाला पौद्गलिक ६. निदानकरण-पौद्गलिक सुखप्राप्ति का संकल्प। (द्र निदान) सुखों का संकल्प सम्यग्दर्शन आदि रूप मोक्षमार्ग का परिमंथु है। परिषद्-जिज्ञासुओं अथवा श्रोताओं का समुदाय।
भगवान् ने अनिदानता को सर्वत्र प्रशस्त कहा है। ४. कौकुचिक आदि परिमंथुओं का स्वरूप
| १. परिषद् के प्रकार : ज्ञ-अज्ञ-दुर्विदग्ध ठाणे सरीर भासा, तिविधो पुण कक्कओ समासेणं... | २. परिषद् के प्रकार : लौकिक-लोकोत्तर आवडइ खंभकुड्डे, अभिक्खणं भमति जंतए चेव। ।३. लौकिक परिषद् के प्रकार
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