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ध्यान
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आगम विषय कोश-२
किया जाता है, वह महापान है। पिबति और मिनोति-दोनों किस मार्ग से जाना चाहिए। दोनों मार्गों के मध्य जो विमर्श धातुपद एकार्थक हैं।
का क्षण है, उसके तुल्य ध्यानान्तरिका है। ___ आचार्य भद्रबाहु ने चौदह पूर्वो का अध्ययन कर
० ध्यानकोष्ठक महापान-महाप्राण ध्यान की साधना की थी।
___.."भगवओ महावीरस्स"झाणकोट्ठोवगयस्स, ___ (चतुर्दशपूर्वी आचार्य भद्रबाहु ने नेपाल देश में महाप्राण
सुक्कज्झाणंतरियाए वट्टमाणस्स"केवलवरणाणदंसणे ध्यान की साधना की थी। जब महाप्राण ध्यान सम्पन्न हो
समुप्पण्णे॥
(आचूला १५/३८) जाता है, उस अवस्था में प्रयोजन उत्पन्न होने पर अंतर्मुहूर्त में चौदह पूर्वो की अनुप्रेक्षा की जा सकती है। उनका अनुलोम
ध्यानकोष्ठ में लीन शुक्लध्यानांतरिका में वर्तमान विलोम पद्धति अथवा पूर्वानपर्वी-पश्चानपर्वी से परावर्तन भगवान् महावीर को केवलज्ञान-केवलदर्शन उत्पन्न हुए। किया जा सकता है।- श्रीआको १ आगम पूर्व)
('ध्यानकोष्ठक' पद एकाग्रता का सूचक है। कोठे ४. ध्यान और चिन्ता में अन्तर
में डाला हुआ अनाज इधर-उधर नहीं बिखरता, वैसे ही
एकाग्रता की साधना के द्वारा इन्द्रियां, मन और वृत्तियां इधरझाणं नियमा चिंता, चिंता भइया उ तीसु ठाणेसु।
। उधर नहीं दौड़तीं, किन्तु एक ध्येय पर ही स्थिर हो जाती झाणे तदंतरम्मि उ, तव्विवरीया व जा काइ॥ हैं।कोष्ठ का तात्पर्य है ध्येय। जब ध्यान अपने ध्येय में
(बृभा १६४१)
लीन हो जाता है, उस अवस्था में चित्त की 'ध्यानकोष्ठ' ध्यान नियमतः चिन्ता है। चिन्ता के तीन स्थान
अवस्था का निर्माण होता है। पतञ्जलि ने इसे 'देशबन्ध' विकल्पित हैं
या प्रत्ययैकतानता' कहा है। १. ध्यान में दृढ अध्यवसाय रूप चिन्ता होती है।
'कोष्ठ' का एक अर्थ आन्तरिक अंग या अवयव २. ध्यानान्तरिका में जो चिन्तन किया जाता है, वह चिन्ता है। है। इस आधार पर ध्यानकोष्ठ का अर्थ-ध्यान के लिए ३. ध्यान या ध्यानान्तरिका के अतिरिक्त चित्तचेष्टा भी चिन्ता उपयक्त शरीरवर्ती चैतन्यकेन्द्र नाभि, कण्ठ, हृदय आदि
किया जा सकता है। व्यासभाष्य में 'देशबन्ध' के लिए दृढ़ अध्यवसाय रूप ध्यान में जो चिन्तन किया जाता बाह्यदेश का गौणरूप में और शरीर के अंगों का मुख्य है. वहां ध्यान और चिन्ता में अभेद है। अन्यत्र ध्यान और रूप में निर्देश मिलता है। भ१/९ का भाष्य) चिन्ता में भेद है।
५. चंचलता का हेतु : मोह का उदय ० ध्यानान्तरिका
परिणामाणवत्थाणं सति मोहे उ देहिणं। अन्नतरझाणऽतीतो, बिइयं झाणं तु सो असंपत्तो। तस्सेव उ अभावेणं जायते एगभावया॥ झाणंतरम्मि वट्टइ, बिपहे व विकुंचियमईओ॥ जधाऽवचिज्जते मोहो, सुद्धलेसस्स झाइणो।
(बृभा १६४३) तहेव परिणामो वि, विसुद्धो परिवडते॥ ध्याता द्रव्य आदि किसी भी वस्तुविषयक एक ध्यान
जधा य कम्मिणो कम्म, मोहणिज्जं उदिज्जति। को सम्पन्न कर जब तक दूसरा ध्यान प्रारम्भ नहीं करता है
तधेव संकिलिट्ठो से, परिणामो विवढती॥ और यह विमर्श करता है कि अब मुझे कौन सा ध्यान करना
__ (व्यभा २७५९-२७६१) है-यह ध्यानान्तर–दो ध्यानों के बीच का समय ही ध्यानान्तरिका मोह के कारण प्राणियों के मन:परिणाम चंचल होते है। जैसे पथ से गुजरते हुए व्यक्ति के सामने जब दो मार्गों हैं। मोह के अभाव में मन:परिणामों की एकरूपता/ एकाग्रता वाला पथ आ जाता है, तब वह विमर्श करता है कि मुझे होती है।
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