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आगम विषय कोश - २
शुद्ध लेश्या वाले ध्याता (धर्मध्यानी-शुक्लध्यानी) का मोह जैसे-जैसे क्षीण होता है, वैसे-वैसे उसके परिणामों विशुद्धि बढ़ती है।
जैसे-जैसे अशुभलेश्यी ध्याता (आर्त्त - रौद्रध्यानी) के मोहनीय कर्म का उदय होता है, वैसे-वैसे उसके संक्लिष्ट परिणामों में वृद्धि होती है।
निदान - पौद्गलिक सुखसमृद्धि की प्राप्ति के लिए किया जाने वाला संकल्प अथवा कोई भी आकांक्षात्मक संकल्प |
१. निदान का अर्थ
० निदान के पर्याय
२. कामभोगों का निदान और फलश्रुति ३. देवभोग का निदान ......
४. सहज दिव्यभोगों का निदान .......
५. श्रमणोपासक होने का निदान ....... ६. दरिद्रकुलोत्पत्ति का निदान
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दरिद्रता का निदान : रत्नविक्रय दृष्टांत * निदान : मोक्षमार्ग का परिमंथ
७. निदान : कर्मबंध का हेतु ८. श्रमण की आजाति का हेतु : निदान * श्रमण और देवायुबंध
९. अनिदानता सर्वत्र श्रेयस्करी
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द्र परिमंथ
द्र देव
१. निदान का अर्थ
निदानकरणं - देवेन्द्र - चक्रवर्त्यादिविभूतिप्रार्थनं सम्यग्दर्शनादिरूपस्य परिमन्धुः, आर्त्तध्यानचतुर्थभेदरूपत्वात् । (क ६/१९ की वृ)
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देवेन्द्र, चक्रवर्ती आदि के वैभव की आशंसा करना निदान है। यह सम्यग्दर्शन आदि का विघ्न है। निदानकरण आर्त्तध्यान का चौथा भेद है । (द्र श्रीआको १ ध्यान)
० निदान के पर्याय
...... संदाण निदाणं ति य, पव्वो त्ति य होंति एगट्ठा ॥ एगट्टिया - संताणंति वा निदाणंति वा बंधोति वा । (दशानि १३७ चू)
निदान
तणियाणं तिय, आसंसजोगो य होंति एगट्ठा।"
(बृभा ६३४७)
संदान, निदान, पर्व (ग्रंथि), बंध, आशंसायोग - ये निदान के पर्यायवाची नाम हैं।
२. कामभोगों का निदान और फलश्रुति
.....जइ इमस्स सुचरियस्स तव-नियम- बंभचेरवासस्स कल्लाणे फलवित्तिविसेसे अत्थि, तं अहमवि आगमिस्साई इमाई एयारूवाइं ओरालाई माणुस्सगाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरामि निदाणं किच्चा तस्स ठाणस्स अणालोइयप्पडिक्कंते कालमासे कालं किच्चा अण्णतरेसु देवलोगेसु देवत्ताए उववत्तारो भवति । से णं ताओ देवलोगातो "चयं चइत्ता से जे इमे भवंति उग्गपुत्त । तस्स णिदाणस्स इमेतारूवे पावए फलविवागे जं णो संचाएति केवलिपण्णत्तं धम्मं पडिसुणेत्तए । (दशा १०/२४) मानुषिक भोगसामग्री में लुब्ध होकर कोई तपस्वी यह संकल्प करता है-यदि मेरे द्वारा आचीर्ण इस तप-नियम और ब्रह्मचर्यवास का कल्याणकारी विशिष्ट फल हो तो मैं भी अगले जन्म में औदारिक मानुषिक भोगों का उपभोग करूं । ऐसा निदान कर वह उस स्थान की आलोचना-प्रतिक्रमण किए बिना कालमास में कालधर्म को प्राप्तकर किसी देवलोक में देव रूप में उत्पन्न होता है। वहां से च्यवन कर उग्र, भोज आदि कुलों में उत्पन्न होता है।
उस निदान के पापकारी फलस्वरूप वह केवलिप्रज्ञप्त धर्म को नहीं सुन सकता।
( मुनि तपस्या से पूजा पाने की अभिलाषा न करे । शब्दों और रूपों में आसक्त न हो और सभी कामों-इन्द्रियविषयों की लालसा को त्यागे ।
परं लोकाधिकं धाम, तपः श्रुतमिति द्वयम् । तदेवार्थित्वनिर्लुप्तसारं वायते ॥ लोक में दो उत्तम स्थान हैं-तप और श्रुत। ये दो ही श्रेष्ठ स्थान की प्राप्ति के हैं। यदि इनसे पौद्गलिक सुख की आकांक्षा की जाती है तो ये तृण के टुकड़े की भांति निस्सार हो जाते हैं । - सू१/७/२७ वृ)
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