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आगम विषय कोश-२
३१३
द्रव्य
अनुसार सर्वथा गुरु और सर्वथा लघु कुछ भी नहीं होता। यहां विवक्षित नहीं है। यहां गुरुलघु की नियामक शक्ति के इसमें केवल दो ही विकल्प मान्य हैं -गुरुलघु और रूप में अगुरुलघु विवक्षित है। यह शक्ति स्वयं भारहीन है, अगुरुलघु।..."
साथ-साथ गुरुलघु की नियामक भी है। यह शक्ति सिद्ध सामान्य धारणा है-गुरु वस्तु नीचे जाती है और लघु जीवों में पाई जाती है। सिद्ध जीव गुरुलघु नहीं हैं। यह वस्तु ऊपर जाती है। पत्थर नीचे जाता है और धुआं ऊपर जाता निषेध पक्ष है। उसका विधिपक्ष है कि वे अगुरुलघु हैं। यह है। जिनभद्रगणी ने इस प्रश्न की तर्कपूर्ण समीक्षा की है। उनके सिद्धों में पाया जाने वाला अगुरुलघु गुरुलघु का अभाव नहीं मतानुसार गुरुता और लघुता गति के नियामक तत्त्व नहीं हैं। है, किन्तु यह एक विधायक शक्ति है। इसीलिए उसके गति के नियामक तत्त्व हैं-गति-परिणाम और वीर्यपरिणाम। अनन्त पर्यव होते हैं और इसी के द्वारा वे न नीचे आते हैं और इसलिए सर्वथा गुरु और सर्वथा लघु होने का अस्वीकार गति- न इधर-उधर परिभ्रमण करते हैं। यह अगुरुलघु- शक्ति नियम में बाधक नहीं बनता।-भ १/३९८-४१३ भाष्य अणु, सूक्ष्म स्कंन्ध और अमूर्त द्रव्यों में पाई जाती है। संसारी
भावत: लोक में अनन्त वर्णपर्यव, अनन्त गन्धपर्यव, जीव में गुरुलघु और अगुरुलघु दोनों पर्यवों का अस्तित्व अनन्त रसपर्यव, अनन्त स्पर्शपर्यव, अनन्त संस्थानपर्यव, अनन्त । होता है। औदारिक आदि शरीरों के कारण गुरुलघु पर्यवों का गुरुलघुपर्यव और अनन्त अगुरुलघुपर्यव हैं।
अस्तित्व होता है और कार्मण आदि पुद्गल द्रव्यों की अपेक्षा पर्यव दो प्रकार के होते हैं-स्वभावपर्यव और विभाव- से तथा जीव की अपेक्षा से अगुरुलघु पर्यवों का अस्तित्व पर्यव। जीव और पुद्गल में दोनों प्रकार के पर्यव रहते हैं, शेष होता है। सिद्धजीव अशरीरी होते हैं; इसलिए उनमें केवल द्रव्यों में स्वभाव पर्यव होता है। वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श- अगुरुलघु पर्यव होते हैं।-भ २/४५ भाष्य) ये पुद्गल के स्वभाव पर्यव हैं। एक परमाणु या स्कंध एक
० परमाणु भी गुरुलघु गुण काले रंग वाला यावत् अनन्त गुण काले रंग वाला हो
निश्चयात्तु गुरु-लघवः सर्वे पुद्गलाः, यस्मात् जाता है। इसी प्रकार गंध, रस और स्पर्श में भी स्वाभाविक
परमाणोरपि गुरु-लघुभावो विद्यते। कथम्? यदि परिणमन होता रहता है। गुरुलघु पर्यव पुद्गल और पुद्गल
तस्यैकान्तेन गुरुभावो न स्यात् ततोऽनन्तपरमाणुयक्त जीव में होता है। इसका संबंध स्पर्श से है। अगुरुलघु
समवायेऽपि गुरुत्वं न स्यात्, ततश्चासत्कार्यप्रसंगः, पर्यव एक विशेष गुण या शक्ति है। इस शक्ति से द्रव्य का
असत्कार्ये च वैशेषिकादिसिद्धांतप्रसंगः, यस्मादमी द्रव्यत्व बना रहता है। चेतन अचेतन नहीं होता और अचेतन
दोषास्तस्मात् परमाणौ गुरुत्वं विद्यते। एवं लघुत्वमपि। चेतन नहीं होता-इस नियम का आधार अगुरुलघु पर्यव ही
अगुरुलघवश्च सर्वेऽमूर्तास्तिकायाः। अतो आवेक्खिता है। इसी शक्ति के कारण द्रव्य के गुणों में प्रतिसमय
पसिद्धी एतेसिं। षट्स्थानपतित हानि और वृद्धि होती रहती है। इस शक्ति
(बृभा ६५ की चू) को सूक्ष्म वाणी से अगोचर, प्रतिक्षण वर्तमान और आगम
निश्चयनय के अनुसार सभी पुद्गल गुरु-लघु प्रमाण से स्वीकरणीय बतलाया गया है। अगुरुलघु पर्यव स्वभाव वाले होते हैं अतः परमाणु में भी गुरु और लघु भाव को स्वभाव-पर्याय और अर्थपर्याय भी कहा जाता है। होता है। यह क्यों? यदि परमाणु में गुरुभाव न हो तो अनन्त अगुरुलघु का दूसरा अर्थ है भारहीन। नामकर्म की एक परमाणुओं के समवाय में भी गुरुत्व नहीं होगा। इस स्थिति में प्रकृति का नाम भी अगुरुलघु नाम कर्म है। उसका संबंध असत्कार्यवाद, वैशेषिक आदि मतों का प्रसंग भी आएगा, जो भी भारहीनता से है।
सदोष है, अतः परमाणु में गुरुत्व और लघुत्व भी है। सभी अनादि पारिणामिक अगरुलघ शक्ति प्रत्येक द्रव्य में अमूर्त अस्तिकाय अगुरुलघु होते हैं। अत: यह सारा आपेक्षिक होती है। वह यहां विवक्षित नहीं है। अगरुलघ नाम कर्म भी प्ररूपण है।
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