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आगम विषय कोश-२
४. लोकान्तिक देवों द्वारा संबोध ....."देवा . लोगंतिया महिड्डीया।.... बोहिंति य तित्थयरं, पण्णरससु कम्मभूमीसु॥ बंभंमि य कप्पम्मि य, बोद्धव्वा कण्हराइणो मझे। लोगंतिया विमाणा, अट्ठसु वुत्था असंखेज्जा॥ एए देवणिकाया, भगवं बोहिंति जिणवरं वीरं। सव्वजगजीवहियं, अरहं तित्थं पव्वत्तेहि॥
(आचूला १५/२६/४-६) महान् ऋद्धि वाले लोकान्तिक देव पन्द्रह कर्मभूमियों में निष्क्रमणाभिमुख तीर्थंकरों को संबोधित करते हैं।
ब्रह्मलोक देवलोक के नीचे आठ कृष्णराजियों (काले पुद्गलों की पंक्तियों) के आठ अवकाशान्तरों में असंख्येय योनजकोटाकोटि आयाम वाले आठ लोकान्तिक विमान हैं, उनमें आठ प्रकार के लोकान्तिक देव रहते हैं। उन्होंने अपने जीत-आचार के अनुसार अर्हत् जिनवर भगवान् महावीर को निवेदन किया-भंते ! सारे जगत् के जीवों के हित के लिए तीर्थ का प्रवर्तन करें।
('ये देव लोकांत-ब्रह्मलोक के अंत-समीप रहने के कारण लोकान्तिक कहलाते हैं। ये सब सम्यग्दृष्टि और थोड़े भवों में मोक्ष जाने वाले होते हैं।'
लोहित, पीत और शुक्ल वर्ण वाले लोकान्तिक विमानों में आठ लोकान्तिक देव निवास करते हैंविमान
लोकान्तिक देव अर्चि
सारस्वत अर्चिमाली
आदित्य वैरोचन
वह्नि प्रभंकर
वरुण चन्द्राभ
गर्दतोय सूराभ
तुषित शुक्लाभ
अव्याबाध सुप्रतिष्टाभ
आग्नेय मध्य में रिष्टाभ
रिष्ट ।
-भ६/१०६,११०व) ५. वैश्रवण देव ..........."संवच्छरे
दिण्णं॥
वेसमणकुंडलधरा......."पण्णरससुकम्मभूमीसु॥
(आचूला १५/२६/३, ४) देवेन्द्र शक्र की आज्ञा से कुंडलधर वैश्रवण लोकपाल पन्द्रह कर्मभूमियों में तीर्थंकर की प्रव्रज्या से पूर्व वर्षीदान में सहयोग करते हैं।
(वैश्रवण की प्रेरणा से जुंभक देव स्वर्ण, रत्न आदि की व्यवस्था करते हैं।
द्र श्रीआको १ देव सौधर्मावतंसक महाविमान के उत्तर भाग में वैश्रवण का वल्गु नाम का महाविमान है। देवेन्द्र देवराज शक्र के लोकपाल महाराज वैश्रवण की आज्ञा, उपपात, वचन और निर्देश में रहने वाले देव ये हैं-वैश्रवणकायिक, वैश्रवणदेवकायिक, सुपर्णकुमार, सुपर्णकुमारियां, द्वीपकुमार, द्वीपकुमारियां, दिक्कुमार, दिक्कुमारियां, वानमन्तर, वानमन्तरियां।
जम्बूद्वीप द्वीप में मेरुपर्वत के दक्षिण भाग में जो ये स्थितियां उत्पन्न होती हैं-लोहे की खान, रांगे की खान, ताम्बे की खान, सीसे की खान, चांदी की खान, सोने की खान, रत्नों की खान, वज्र की खान, वसुधारा, हिरण्यवर्षा, सुवर्णवर्षा.. हिरण्यवृष्टि, सुवर्णवृष्टि, रत्नवृष्टि, वज्रवृष्टि, आभरणवृष्टि, पत्रवृष्टि, पुष्पवृष्टि, फलवृष्टि, बीजवृष्टि माल्यवृष्टि, वर्णवृष्टि, चूर्णवृष्टि, गन्धवृष्टि, वस्त्रवृष्टि, भाजनवृष्टि, क्षीरवृष्टि, सुकाल, दुष्काल, अल्पार्घ्य, महाऱ्या, सुभिक्ष, दुर्भिक्ष, क्रय-विक्रय, सन्निधि, संनिचय, निधि, निधान हैं-वे चिरपुराण अल्पस्वामित्व वाले हों, उनमें धन का न्यास करने वाले कम रहे हो, उन तक पहुंचने के मार्ग कम हों, वहां धन का न्यास करने वालों का गोत्रगृह कम रहा हो, उनका स्वामित्व उच्छिन्न हो गया हो, उनमें धन का न्यास करने वाले उच्छिन्न हो गए हों." विहां जो दुराहे, तिराहे, चौराहे, चोक , चारों ओर प्रवेशद्वार वाले स्थान, राजपथ और वीथियों में, नगर के जलनिर्गमन मार्गों में, श्मशानगृहों, गिरिगृहों, कन्दरागृहों, शांतिगृहों, शैलगृहों, उपस्थानग्रहों और भवनग्रहों में जो निधान निक्षिप्त हैं-वे देवेन्द्र देवराज शक्र के लोकपाल महाराज वैश्रवण और वैश्रवणकायिक देवों से अज्ञात, अदृष्ट, अश्रुत, अस्मृत और अविज्ञात नहीं होतीं।-भ ३/२६६-२६८)
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