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दीक्षा
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आगम विषय कोश-२
शा
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हो, तो मूलगुण-उत्तरगुण रूप द्विविध अणुव्रतधर्म (श्रावक कदाचित् अयोग्य व्यक्ति को प्रव्रजित कर दिया जाए के बारह व्रतों) का उपदेश दे। यदि श्रावकधर्म ग्रहण करने में तो उसके लिए शेष मुंडन आदि पांचों प्रस्थान वर्जनीय हैं। भी असमर्थ हो, तो सम्यग्दर्शन का उपदेश देकर मद्य-मांस (निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियां पूर्व और उत्तर-इन दो की विरति का कथन करे। तत्पश्चात् मद्य-मांस की विरति से दिशाओं की ओर मुंह कर-मुंडित करें, शिक्षा दें, महाव्रतों होने वाला ऐहिक और पारलौकिक फल बताए। इस क्रम का में आरोपित करें, भोजन मंडली में सम्मिलित करें, संस्तारक अतिक्रमण करने वाला तप और काल-दोनों से गुरु, चतुर्गुरु मंडली में सम्मिलित करें ।....-स्था २/१६८ प्रायश्चित्त का भागी होता है।
चार पदों में क्रमव्यवस्था बतलाई गई हैउपासक के लिए यथारुचि धर्मोपदेश किया जा सकता १. प्रवाजित-मुनिवेश देना। २. मुंडित-केशलुंचन करना।
३. शैक्षित-दिनचर्या से संबंधित क्रियाकलाप का ज्ञान कराना। व्युत्क्रम से उपदेश देने से हानि-प्रव्रज्या ग्रहण करने के ४. शिक्षित-सूत्र-अर्थ-अध्ययन कराना।–भ २/५२ की वृ) लिए तत्पर कोई व्यक्ति मुनि के पास धर्मश्रवण के लिए जाता ४. दीक्षाविधिका कम है। मुनि के अविधिकथन से रंजित होकर वह सोचता है
पुच्छा सुद्धे अट्टा, वा सामाइयं च तिक्खुत्तो। व्यक्ति श्रावक धर्म का पालन करता हुआ, कामभोग भोगता
सयमेव उ कायव्वं, सिक्खा य तहिं पयत्तेणं॥ हुआ भी यदि सुगति को प्राप्त कर सकता है, तो फिर
गोयरमचित्तभोयणसज्झायऽण्हाणभूमिसेज्जादी। कष्टसाध्य प्रव्रज्या से क्या प्रयोजन? यदि सम्यग्दर्शन मात्र से
अब्भुवगय थिरहत्थो, गुरू जहण्णेण तिण्णट्टा॥ सुगति प्राप्त हो सकती है, तो फिर व्रतबंधन से लाभ ही क्या
दव्वादी अपसत्थे, मोत्तु पसत्थेसु फासुगाहारं। है? इस प्रकार विपरिणत होकर वह प्रव्रज्या-ग्रहण नहीं
लग्गाति व तूरंते, गुरुअणुकूले वाहाजायं। करता, संसारसागर में डूब जाता है।
तिगुणपयाहिणपादे, नित्थारो गुरुगुणेहि वट्टाहि।" ___ कभी-कभी परम वैराग्यवान् व्यक्ति धर्मकथी मुनि से
गोयरे ति दिणे दिणे भिक्खं हिंडियव्वं । जत्थ जं मुनिधर्म की बात न सुनकर श्रावकधर्म की बात सुनता है, तो ।
लब्भइ तं अचित्तं घेत्तव्वं, तं पिएसणादिसुद्धं, आणियं पि उसे रुचिकर नहीं लगती और वह आर्हत धर्म से विपरिणत
बालवुड्डसेहादिएहिं सह संविभागेण भोत्तव्वं। निच्चं होकर अन्यतीर्थिकों के पास प्रव्रजित हो जाता है।
सज्झायज्झाणपरेण होयव्वं । सदा अण्हाणगं, उदुबद्धे सया विधि से उपदेश देने के चार लाभ हैं
भूमिसयणं, वासासु फलगादिएसु सोतव्वं। अट्ठारस० तीर्थ की अविच्छिन्नता।
सीलंगसहस्सा धरेयव्वा लोयादिया य किलेसा अणेगे ० तीर्थ को दीर्घजीवी बनाने से आत्महित।
कायव्वा। एयं सव्वं जति अब्भुवगच्छति तो पव्वावेयव्वो। ० प्रव्रज्या प्रदान करने से पर-कल्याण, संसार से समुद्धरण।
एसा पव्वावणिज्जपरिक्खा पव्वावणा भण्णति। ० मोक्षमार्ग की प्रभावना।
___सणिसेज्ज रयोहरणं मुहपोत्तिया चोलपट्टो य अतः यतिधर्मप्रतिपादन को प्राथमिकता दी गई है।
एयं अहाजातं दातुं वा। ३. दीक्षा के छह प्रस्थान
वामपासट्ठियस्स आयरितो भणाति-इमस्स साधुस्स पव्वाविओ सिय त्ति य, सेसंपणगंअणायरणजोग्गं"
सामाइयस्स आरुहावणं करेमि काउसग्गं। अन्नत्थू..."तंच इमं मुंडावण सिक्खावण उवट्ठावण सं - ससिएणं जाव वोसिरामि त्ति, लोगस्सुज्जोयगरं चिंतित्ता जण संवासे त्ति।
(निभा ३७४६ चू) णमोऽरहताणं ति पारित्ता, लोगस्सुजोयगरं कड्डित्ता पच्छा दीक्षाविधि में क्रमशः छह प्रस्थान हैं-प्रव्राजना, मुंडन, पव्वावणिज्जेण सह सामाइयसुत्तं तिक्खुत्तो कडति, पच्छा शिक्षण, उपस्थापना, सहभोजन, संवास।
सेहो इच्छामि खमासमणो त्ति वंदति।
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