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आगम विषय कोश-२
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दीक्षा
उपस्थापना विधि-आचार्य उपस्थापनीय शिष्य को अपने वर्ष पर्यंत आचार्य-उपाध्याय पद पर नहीं रह सकते। वामपार्श्व में खड़ा करते हैं, फिर महाव्रतकथन के लिए सूत्रोक्त विधि से यथासमय उपस्थापना न करने पर कायोत्सर्ग में चउवीसत्थव (लोगस्स....) का चिंतन कर आचार्य-उपाध्याय को स्वांतरकृत छेद या परिहार आता हैनमस्कार मंत्र से उसे पूरा कर पुनः चतुर्विंशतिस्तव का स्पष्टता यह प्रथम आदेश है। से वाचिक उच्चारण कर पांच महाव्रतों का उच्चारण करते हैं। द्वितीय आदेश के अनुसार तप या छेद से अदम्यमान
सामायिक की भांति अनुकूल प्रशस्त द्रव्य-क्षेत्र-काल- (वहन करने योग्य न) होने पर अथवा धृतिबल और कायबल भाव-तारा-चन्द्रबल में इस विधि को सम्पन्न किया जाता है। से दुर्बल होने पर एक वर्ष पर्यंत आचार्य-उपाध्याय पद का ० उपस्थापना की कालमर्यादा
त्याग करना होता है। आयरिय-उवज्झाए सरमाणे परं चउरायाओ ० पहले उपस्थापना किसकी? दण्डिक दृष्टांत पंचरायाओ कप्पागं भिक्खुं नो उवट्ठावेइ । अत्थियाइं स्थ पिय-पुत्त-खुड्ड-थेरे, खुड्डगथेरे अपावमाणम्मि। से केइ माणणिज्जे कप्पाए, नत्थि से केइ छए वा परि-हारे सिक्खावण पण्णवणा, दिटुंतो दंडिगादीहिं॥ वा। नत्थियाइं स्थ से केइ माणणिज्जे कप्पाए, से संतरा
राया रायाणो वा, दोण्णि वि समपत्त दोसु ठाणेसु। छए वा परिहारे वा॥
ईसर सेट्ठि अमच्चे, निगम घडा कुल दुवे चेव॥ आयरिय-उवज्झाए सरमाणे वा असरमाणे वा परं समगं तु अणेगेसू, पत्तेसू अणभिओगमावलिया। दसरायकप्पाओ कप्पागंभिक्खुंनो उवट्ठावे" नत्थियाई एगतो दुहतो व ठिता, समराइणिया जहासण्णा॥ त्थ से केइ माणणिज्जे कप्पाए, संवच्छरं तस्स तप्पत्तियं
(निभा ३७६४, ३७६८, ३७७०) नो कप्पइ आयरियत्तं उद्दिसित्तए॥ (व्य ४/१५, १७) पिता और पुत्र-दो व्यक्ति एक साथ प्रव्रजित हुए हैं,
एसादेसो पढमो, बितिए तवसा अदम्ममाणम्मि। एक साथ सत्र का अध्ययन किया है तो दोनों को एक साथ उभयबलदुब्बले वा, संवच्छरमादि साहरणं॥ उपस्थापित किया जाता है।
(व्यभा २०६०) क्षुल्लक ने सूत्र नहीं सीखा है, स्थविर ने सीख लिया आचार्य या उपाध्याय स्मरण रखते हुए, कल्पाक है, तो उसे उपस्थापित किया जाता है। क्षुल्लक ने सूत्र सीख (उपस्थापना योग्य) भिक्षु को चार या पांच अहोरात्र तक लिया, स्थविर ने सूत्र नहीं सीखा तो उसे प्रयत्नपूर्वक सूत्र उपस्थापित नहीं करते, उस समय यदि नवदीक्षित के कोई सिखाकर दोनों को युगपत् उपस्थापित किया जाता है। पूज्यजन (पिता आदि) भावी कल्पाक हों (उनकी बड़ी स्थविर की स्वीकृति होने पर क्षुल्लक को पहले भी दीक्षा में विलम्ब हो), तो आचार्य को छेद या परिहार तप रूप उपस्थापित किया जा सकता है। स्थविर समय पर सूत्र सीख प्रायश्चित्त नहीं आता।
नहीं पाता है और क्षुल्लक के लिए अनुज्ञा भी नहीं देता है तो यदि पूज्यजन भावी कल्पाक न हों, तो (दीक्षा के सात उसे समझाने हेतु दृष्टांत का प्रज्ञापन किया जाता हैदिन बाद आठवीं यावत् बारहवीं रात्रि का उल्लंघन करने ० दण्डिक (राजा) दृष्टांत-एक राजा अपने राज्य से परिभ्रष्ट पर) स्वांतरकृत छेद या परिहार प्राप्त होता है।
हो गया। पुत्र भी उसके साथ था। वे दोनों एक अन्य राजा की __ आचार्य-उपाध्याय स्मृति में रहते हुए (नक्षत्र आदि सेवा में नियुक्त हो गए। वह राजा राजपुत्र की सेवा से संतुष्ट प्रशस्त न होने पर) या (व्याक्षेपों के कारण) स्मृति में न रहते हआ और उसे राजा बनाने का निर्णय किया। क्या पिता राजा हुए कल्पाक भिक्षु को दस अहोरात्र के पश्चात् भी (७+१०= उसे अनुमति नहीं देगा? अवश्य देगा। १७ वीं रात्रि पर्यंत) उपस्थापित न करे तथा कोई पूज्य भावी इसी प्रकार तुम्हारा पुत्र यदि महाव्रत-राज्य को प्राप्त कल्पाक भी न हो, तो वे तत्प्रत्ययिक प्रायश्चित्त स्वरूप एक करता है तो क्या तुम इसे मान्य नहीं करोगे?
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