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दीक्षा
ईसिं अवणय अंतो, वामे पासम्मि होति आवलिया । अभिसरणम्मि य वुड्डी, ओसरणे सो व अण्णो वा ॥ (व्यभा २०३७, २०४५, २०५२)
प्रव्रज्याप्रदान के पश्चात् उसे प्रासुक आहार कराया जाता है। उसे भिक्षा लाने नहीं भेजा जाता। वह ग्रहण और आसेवन शिक्षा प्राप्त करता है।
षड्जीवनिका अध्ययन ( दशवैकालिक के प्रथम चार अध्ययन) पर्यंत के सूत्र - अर्थ ग्रहण के पश्चात् उसे उपस्थापित किया जाता है (सात दिन बाद छेदोपस्थापनीय चारित्र दिया जाता है)।
प्रशस्त द्रव्य-क्षेत्र - काल-भाव में व्रतों का आरोपण किया जाता है - प्रारम्भ से अन्त तक एक-एक व्रत का तीन बार उच्चारण किया जाता है
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उपस्थाप्यमान साधुओं की आवलिका गुरु के वाम पार्श्व में गजदन्त की भांति ईषद् प्रणत हो स्थित होती है। वे उपस्थापित साधु यदि गुरु के पास आगे से अभिसरण करते हैं तो गच्छ की वृद्धि होती है। (अन्य बहुत से व्यक्ति निकट भविष्य में दीक्षा लेते हैं) । यदि गुरु के पीछे से अपसरण करते हैं तो उपस्थाप्यमान या अन्य कोई साधु गच्छ से हर्भूत हो जाता |
० उपस्थापनाकल्पिक : बड़ी दीक्षा विधि
अप्पत्ते अकहित्ता, अणहिगयऽपरिच्छणे य चउगुरुगा।" पढिए य कहिय अहिगय, परिहर उवठावणाए सो कप्पो ।" (बृभा ४११, ४१४) अप्पत्तं उ सुतेणं, परियाए उट्ठवेंते चउगुरुगा ।'' सुत्तत्थे अकहेत्ता, जीवाजीवे य पुण्ण पावं च । वा चउगुरुगा, अणभिगयपुण्णपावं, उवट्ठवेंतस्स चउगुरू होंति । आणादिणो विराहण, मालाए होति दिट्टंतो ॥ दव्वातिसाह
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पुवि जाहे सत्थपरिण्णा सुत्ततो अधीता ताहे उवट्ठावणापत्तो भन्नति। दसवेयालियमुप्पत्तिकालतो पुण जाहे छज्जीवणिया अधीता "उच्चे द्वावणा उत् प्राबल्येन वा ठावणा उट्ठावणा ।
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आगम विषय कोश - २
...... अणभिग्गाहिता जस्स णो सद्दहति जहा पंचवण्णसुंगधपुप्फमाला पउमुप्पलोवसोभिया उद्धसुक्कखाणुमालड़ता ण सोभति तहा पंचमहव्वयमाला सभावेणोवसोभिता तस्स न सोभति ।
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(निभा ३७५३-३७५५, ३७५९ चू) ......उवट्ठाविज्जमाणे आयरिओ अप्पणो वामपासे ठवेति । ... महव्वयकहणा य काउस्सग्गं करेति, तत्थ चउवीसत्थयं चिंतेति, णवक्कारेण पारेत्ता चउवीसत्थयं फुडवियडं वायाते कड्डित्ता ताहे महव्वयउच्चारणं करेंति । (निभा ३७५८ की चू)
सूत्रार्थ की दृष्टि से अप्राप्त, अकथित, अनभिगत और अपरीक्षित है, उसे उपस्थापित (विभागपूर्वक महाव्रतों में आरोपित करने वाला चतुर्गुरु प्रायश्चित्त का भागी होता है ।
० अप्राप्त - षड्जीवनिका सूत्र पढ़े बिना उपस्थापनाकल्पिक नहीं होता। प्राचीनकाल में आचारांग के प्रथम अध्ययन 'शस्त्रपरिज्ञा' को सूत्रतः पढ़ने पर उपस्थापना होती थी । दशवैकालिक की रचना के पश्चात् उसके चतुर्थ अध्ययन 'षड्जीवनिका' को पढ़ने पर उपस्थापनार्ह माना जाने लगा।
संयम के उच्च स्थान पर स्थापना अथवा प्रबलता से स्थापना उपस्थापना (छेदोपस्थापनीय चारित्र) है। • अकथयित्वा - सूत्र का अर्थ-जीव, अजीव, आश्रव, बंध, पुण्य, पाप, संवर, निर्जरा और मोक्ष-ये नव पदार्थ भेद-प्रभेद पूर्वक बताये बिना उपस्थापित नहीं किया जाता । • अनभिगत — जो नव पदार्थों को सुनकर जानकर उन पर श्रद्धा नहीं करता, उसे उपस्थापित करने पर आज्ञाभंग आदि दोषों का तथा जीवविराधना का प्रसंग आता है।
अभिनव प्रव्रजित को सूत्र पढ़ाकर, अर्थ बताकर परीक्षा की जाती है कि उसने सम्यक् ग्रहण किया या नहीं, उस पर श्रद्धा की या नहीं ? तत्पश्चात् उसे छहजीवनिकाय की हिंसा का विभागपूर्वक प्रत्याख्यान कराया जाता है। माला दृष्टांत - पद्म-उत्पल से शोभित पंचवर्णी सुगंधित पुष्पमाला ऊंचे, शुष्क स्थाणु पर शोभित नहीं होती, वैसे ही सहज सुंदर पंचमहाव्रत-माला अश्रद्धालु के शोभित नहीं होती ।
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