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आगम विषय कोश - २
सत्तर वर्ष का उत्कृष्ट वृद्ध है। आठवीं दशा मध्यम और नौवीं दसवीं दशा जघन्य है ।
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१२. नपुंसक के प्रव्राजन आदि का निषेध
तओ नो कप्पंति पव्वावेत्तए॥ मुंडावेत्तए सिक्खावेत्तए उट्ठावेत्तए संभुंजित्तए संवासित्तए, तं जहा - पंड वाइए कीवे ॥ ( क ४/४, ५ ) नपुंसक, वातिक (तीव्र वात रोगों से पीड़ित) और क्लीव (वीर्यधारण में अशक्त ) - ये तीनों प्रकार के व्यक्ति प्रव्रज्या, मुण्डन, शिक्षण, उपस्थापन, संभोज और संवास के अयोग्य होते हैं।
पव्वाविओ सियत्ति उ, सेसं पणगं अणायरणजोग्गो ।" (बृभा ५१९० )
नपुंसक को अनजान में दीक्षा दे दी गई हो तो ज्ञात होने पर मुण्डन आदि पांचों उस के लिए विहित नहीं हैं। • नपुंसक को दीक्षा क्यों नहीं ?
थीपुरिसा जह उदयं, धरेंति झाणोववासणियमेणं । एवमपुमं पि उदयं, धरेज्जति को तहिं दोसो ॥ थीपुरिसा पत्तेयं वसंति दोसरहितेसु ठाणेसु । संवासफासदिट्ठे, इय वच्छंब दिट्ठतो ॥ ( निभा ३६०२, ३६०४) शिष्य ने पूछा- ध्यान, उपवास, नियम आदि में उपयुक्त स्त्री और पुरुष के भी जैसे वेद का उदय रहता वैसे ही नपुंसक के वेदोदय रहता है, फिर नपुंसक को प्रव्रजित करने में क्या दोष है ?
आचार्य ने कहा- स्त्री और पुरुष प्रव्रजित होकर निर्दोष स्थानों में रहते हैं - स्त्री स्त्रियों (साध्वियों ) के साथ और पुरुष पुरुषों (साधुओं) के साथ।
नपुंसक यदि स्त्रियों या पुरुषों के साथ रहता है तो संवास, स्पर्श और दृष्टिजनित दोषों की संभावना रहती है। वत्स-अंब दृष्टांत—जैसे माता को देखकर वत्स के स्तनाभिलाषा होती है, एक व्यक्ति को आम खाते हुए देखकर दूसरे के मुंह में पानी आ जाता है, वैसे ही नपुंसक को देखकर स्त्री और पुरुष के प्रबल वेदोदय हो सकता है।
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१३. दीक्षा के अनर्ह : जड्डु
दीक्षा
तिविहो य होइ जड्डो, सरीर-भासाए करणजड्डो उ भासाजड्डो तिविहो, जल मम्मण एलमूओ य ॥ दंसण - नाण- चरित्ते, तवे य समितीसु करणजोगे य । उवदिट्ठे पण गेहति, जलमूओ एलमूओ य ॥ णाणादट्ठा दिखा, भासाजड्डो अपच्चलो तस्स । सो बहिरो विणियमा, गाहणउड्डाह अहिकरणं ॥ तिविहो सरीरजड्डो, पंथे भिक्खे य होति वंदणए । एतेहि कारणेहिं, जड्डुस्स ण दिज्जती दिक्खा ॥ इरियासमिती भासेसणा य आदाणसमितिगुत्तीसु । न वि ठाति चरणकरणे, कम्मुदएणं करणजड्डो ॥
( निभा ३६२५, ३६२७-३६२९, ३६३३) जड्ड (क्रिया, वचन और बुद्धि से हीन) के तीन प्रकार हैं- शरीरजड्डु, भाषाजड्ड, करणजड्ड । ये तीनों प्रकार के जड्डु दीक्षायोग्य नहीं होते ।
० भाषाजड्ड - इसके तीन प्रकार हैं
१. जलमूक - जलनिमग्न व्यक्ति की भांति बुडबुड - अव्यक्त भाषण करने वाला ।
२. मन्मनमूक - बीच-बीच में स्खलित उच्चारण वाला। ३. एडमूक - मेमने की तरह बुडबुडाने वाला ।
मूक और एडमूक दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप, समिति, करण और योग के स्वरूप को समझाने पर भी नहीं समझते । दीक्षा का प्रयोजन है ज्ञान आदि की उपलब्धि । भाषाजड्डु उसे ग्रहण करने में असमर्थ होता है।
जलमूक और एडमूक- दोनों नियमत: बधिर होते हैं। उन्हें जोर से बोलकर समझाने पर उड्डाह होता है और वे सम्यक् ग्रहण नहीं कर पाते हैं तो क्रुद्ध होकर अधिकरण करते हैं । अत: उन्हें दीक्षित नहीं करना चाहिए।
२. शरीरजड्डु - शरीरभेद के आधार पर नहीं, क्रियाभेद के आधार पर इसके तीन भेद हैं-पंथ, भिक्षा और वंदना ।
जिनका शरीर स्थूल होता है, उन्हें पदयात्रा, भिक्षाटन और वंदना करने में कठिनाई होती है, अतः वे दीक्षायोग्य नहीं हैं।
३. करणजड्ड - जो ईर्या, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेप और उत्सर्ग - पांच समिति, मन-वचन-काय गुप्ति और चरण
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