________________
दिग्बंध
२९२
आगम विषय कोश-२
लक्षणोपेते दिग्बंध आचार्यपदाध्यारोपः क्रियते।
एकपाक्षिकः प्रव्रज्यया श्रुतेन च स्ववर्गस्य भिक्षोः (व्यभा १३२२, १३२५ वृ) कल्पते इत्वरां कियत्कालभाविनीमित्वरग्रहणमुपलक्षणं निष्पन्न शिष्यों को आचार्य-उपाध्याय पद पर स्थापित यावत्काथका च दिशमाचार्यत्वमुपाध्यायत्वं वा अनदिर्श किया जाता है। जो रात्निक गीतार्थ अलब्धिमान होते हैं वे वा आचार्योपाध्यायपदद्वितीयस्थानवर्तित्वम। पूर्वदिक्-पूर्वाचार्यप्रदत्त अनुरत्नाधिकत्व आदि रूप दिशा को
(व्य २/२६ वृ) धारण करते हैं। दिग्बंध केवल सलक्षण गीतार्थ का ही होता
जिसकी प्रव्रज्या और वाचना एक गुरुकुल के अधीन है। विशिष्ट आचार्यलक्षणों से युक्त शिष्य में दिग्बंध - होती है, वह एकपाक्षिक भिक्ष कहलाता है। उसे इत्वरिकआचार्य पद का अध्यारोपण किया जाता है।
अल्पकालिक अथवा यावत्कथिक दिशा या'अनुदिशा के लिए (तेरापंथ धर्मसंघ के चतुर्थ आचार्य श्रीमज्जयाचार्य ने उद्दिष्ट किया जा सकता है । दिशा के दो रूप हैं-आचार्यरूप वि. सं. १९१० में सरदारसती को साध्वीप्रमुखा पद पर
और उपाध्यायरूप।अनुदिशा का अर्थ है-आचार्य-उपाध्यायपद नियुक्त किया। श्रमण-श्रमणी परिवार उन्हें प्रवर्तिनी साध्वी
से द्वितीयस्थानवर्ती। चंदनबाला की उपमा से अलंकृत करता था।
४. द्विविध-त्रिविध दिशा -शासन समुद्र भाग ७ पृ. १९९, २०४) ...."दुविहं तिविह दिसाए...|| २. इत्वरिक-यावत्कथिक दिग्बंध
आयरियोवज्झाया दुविहा दिसा साहूणं आयरियो....."अब्भुज्जयपरिकम्मे, मोहे रोगे व इत्तरिओ॥ वज्झाया पवत्तिणी य तिविहा संजतीण दिसा। (व्यभा १३००)
(निभा २७५९ चू) जो आचार्य अभ्युद्यतविहार (जिनकल्प आदि) अथवा
साधुओं के द्विविध दिशा होती है-आचार्य, उपाध्याय। अभ्युद्यतमरण (अनशन) स्वीकार करते हैं, वे यावत्कथिक
साध्वियों के त्रिविध दिशा होती है-आचार्य, उपाध्याय, दिग्बंध करते हैं-योग्य गीतार्थ को सम्पूर्ण रूप से आचार्यपद पर प्रवर्तिनी। नियुक्त करते हैं। मोहचिकित्सा अथवा रोगचिकित्सा करने के ५. दिशापहार का प्रायश्चित्त इच्छुक आचार्य इत्वर दिग्बंध-अल्पकाल के लिए किसी को
जे भिक्खू दिसं अवहरति......"तं सेवमाणे आचार्यपद पर नियुक्त करते हैं।
आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं अणुग्घातियं ।। परिकर्मकाल में अभ्युद्यतविहारी द्वारा इत्वरदिग्बंध दिशा"तस्यापहारी-तं परित्यज्य अन्यमाचार्य भी किया जाता है।
द्र जिनकल्प उपाध्यायं वा प्रतिपद्यते इत्यर्थः। (नि १०/११, ४१ चू) ३. दिशा-अनुदिशा
जो साधु-साध्वी दीक्षा के समय व्यपदिष्ट आचार्यदिशेति व्यवदेशः। प्रव्राजनकाले उपस्थापनाकाले उपाध्याय-प्रवर्तिनी को छोड़ अन्य आचार्य आदि को स्वीकार वा।यो आचार्य उपाध्यायो वा व्यपदिश्यते सा तस्य दिशा करता है, वह दिशापहारी है। उसे चतुर्गुरुमासिक प्रायश्चित्त इत्यर्थः । .."संजतीए पवत्तिणी"। (नि १०/११ की चू) प्राप्त होता है।
प्रव्राजनकाल या उपस्थापनाकाल में आचार्य, उपाध्याय दिशा-ताप दिशा, प्रज्ञापक दिशा आदि। और प्रवर्तिनी के रूप में जिसका व्यपदेश (आदेश-निर्देश में
* चरंती आदि प्रशस्त दिशा
द्र आलोचना रहने का निर्देश) किया जाता है, वह उसकी दिशा है। * दिशामूढ
द्र मूढ एगपक्खियस्स भिक्खुस्स कप्पति इत्तरियं दिसं वा * महास्थंडिल की दिशा : गुण-दोष" द्र महास्थण्डिल अणुदिसंवा उद्दिसित्तए॥
* तापक्षेत्र दिशा आदि
द्र श्रीआको १ लोक
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org