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आगम विषय कोश-२
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तीर्थंकर
१५. केवलज्ञान की उत्पत्ति
"महावीरे “गोयमाईणं समणाणं णिग्गंथाणं पंच तओ णं समणस्स भगवओ महावीरस्स एएणं महव्वयाइं सभावणाई छज्जीवनिकायाई आइक्खइ॥ विहारेणं विहरमाणस्स बारसवासा विइक्कंता, तेरस
__ (आचूला १५/४१, ४२) मस्स य वासस्स परियाए वट्टमाणस्स जे से गिम्हाणं
प्रवर केवलज्ञान और केवलदर्शन के धारक श्रमण दोच्चे मासे चउत्थे पक्खे-वइसाहसुद्धे, तस्स णं
भगवान महावीर ने अपने आपको और जगत् को भलीभांति वइसाहसुद्धस्स दसमीपक्खेणं, सुव्वएणं दिवसेणं, विजएणं मुहुत्तेणं, हत्थुत्तराहिं णक्खत्तेणं जोगोवगतेणं,
देखकर-जानकर पहले (समवसरण में) देवों को धर्म का पाईणगामिणीए छायाए, वियत्ताए पोरिसीए, जंभिय
उपदेश दिया, तत्पश्चात् (दूसरे समवसरण में) मनुष्यों को धर्म गामस्स णगरस्स बहिया णईए उजुवालियाए उत्तरे कूले,
का उपदेश दिया। महावीर ने गौतम आदि श्रमण-निर्ग्रन्थों के सामागस्स गाहावइस्स कट्ठकरणंसि, वेयावत्तस्स चेइ
मध्य पांच महाव्रतों, उनकी पचीस भावनाओं तथा छह यस्स उत्तरपुरथिमे दिसीभाए, सालरुक्खस्स अदूर
जीवनिकाय का आख्यान किया। सामंते, उक्कुडुयस्स, गोदोहियाए आयावणाए आया
(आचार्य सिद्धसेन ने द्वात्रिंशद द्वात्रिंशिका (१/१३) वेमाणस्स, छटेणं भत्तेणं अपाणएणं, उडजाणु
में लिखा हैअहोसिरस्स, धम्मज्झाणोवगयस्स, झाणकोट्ठोवगयस्स, य एव षड्जीवनिकायविस्तर:, परैरनालीढपथस्त्वयोदितः । सुक्कज्झाणंतरियाए वट्टमाणस्स णिव्वाणे, कसिणे, पडि
अनेन सर्वज्ञपरीक्षणक्षमास्त्वयि प्रसादोदयसोत्सवाः स्थिताः ॥ पुण्णे केवलवरणाणदंसणेसमुप्पण्णे। (आचूला १५/३८) प्रभो! तुमने दूसरे दार्शनिकों के द्वारा अनास्वादित
श्रमण भगवान महावीर को इस प्रकार विहरण करते (अज्ञात-अनुक्त-अक्षुण्ण) पथ-छहजीवनिकाय का सूक्ष्मरूप हए बारह वर्ष बीत गए। तेरहवां वर्ष चल रहा था। ग्रीष्म का से विशद निरूपण किया है-इस नवीन मौलिक स्थापना से दूसरा मास, चौथा पक्ष, वैशाख शुक्ल पक्ष, उस वैशाख शुक्ल ___ अनुगृहीत सर्वज्ञ-परीक्षा-प्रवीण पुरुष आनन्दोदय-उत्सव के पक्ष की दशमी, सुव्रत दिवस, विजय मुहूर्त । चन्द्रमा के साथ साथ तुम्हारे चरणों में प्रणत हैं।) उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र का योग। पूर्वगामिनी छाया। व्यक्त
० तीर्थंकर-कल्याणक, उपदेश, वचनातिशय (चतुर्थ) प्रहर। जृम्भिकग्राम नगर के बाहर । ऋजुबालिका
जम्मण-णिक्खमणेसु य, तित्थकराणं करेंति महिमाओ। नदी का उत्तरी तट । श्यामाक गृहपति का खेत । व्यावृत्त चैत्य
भवणवति- वाणमंतर- जोतिस- वेमाणिया देवा।। का ईशानकोण। शालवृक्ष से न अति दूर न अति निकट।
उप्पण्णे णाणवरे, तम्मि अणंते पहीणकम्माणो। महावीर पहले उत्कुटुक आसन में, फिर गोदोहिका मुद्रा में
तो उवदिसंति धम्मं, जगजीवहियाय तित्थगरा॥ सूर्य की आतापना ले रहे थे। दो दिन का निर्जल उपवास। ऊर्ध्वजानु-अध:शिर। धर्म्यध्यान में लीन। ध्यान-कोष्ठक में
लोगच्छेरयभूयं, उप्पयणं निवयणं च देवाणं। प्रविष्ट । शुक्लध्यान की अंतरिका में वर्तमान भगवान् महावीर
संसयवागरणाणि य, पुच्छंति तहिं जिणवरिंदे ॥ को निर्वाणदायी/ शांत-प्रशांत, कृत्स्न, प्रतिपूर्ण, अनुत्तर केवलज्ञान
___ (निभा ५७३५-५७३७) और दर्शन समुत्पन्न हुए।
आर्यजनपदों में भवनपति, व्यंतर, ज्योतिष्क और * केवलज्ञान का स्वरूप
द्र ज्ञान वैमानिक देव तीर्थंकरों के जन्मकल्याण, अभिनिष्क्रमण १६. महावीर का धर्मोपदेश : जीवनिकाय-निरूपण कल्याण आदि उत्सव करते हैं।
..."समणे भगवं महावीरे उप्पण्णणाणदंसणधरे तीर्थंकर घातिकर्मों के क्षीण होने पर, प्रवर अनंत अप्पाणं च लोगं च अभिसमेक्ख पव्वं देवाणं धम्म- (केवल) ज्ञान उत्पन्न होने पर जगत के जीवों के कल्याण के माइक्खति, तओ पच्छा मणुस्साणं॥
लिए धर्म का उपदेश देते हैं।
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