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आगम विषय कोश-२
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तीर्थंकर
आयुक्षय होने पर च्यवन कर महाविदेहक्षेत्र में चरम उच्छ्वास । अर्थ और सम्पदा-दान में प्रवृत्त होते हैं । सूर्योदय से प्रातराशमें सिद्ध होंगे।
प्रभातकालीन भोजन ले समय तक एक करोड़ और पूरी आठ १०. अवधिज्ञान से अभिनिष्क्रमणकाल निर्णय लाख स्वर्णमुद्राओं का दान करते हैं। पूरे वर्ष में कुल तीन
पुट्वि पि य णं समणस्स भगवओ महावीरस्स अरब, अठासी करोड़ अस्सी लाख मुद्राएं देते हैं। माणुस्सगाओ गिहत्थधम्माओअणुत्तरे आहोहिए अप्पडिवाई १२. महावीर का अभिनिष्क्रमण नाणदंसणे होत्था।तए णं समणे भगवं महावीरे तेणं अणु
"से हेमंताणं पढमे मासे पढमे पक्खे-मग्गसिरत्तरेणं आहोहिएणं नाणदंसणेणं अप्पणो निक्खमणकालं
बहुले, तस्स णं मग्गसिरबहुलस्स दसमीपक्खेणं, सुव्वएणं आभोएइ"।
(दशा ८ परि सू ७४)
दिवसेणं, विजएणं मुहत्तेणं, हत्थुत्तराहिं णक्खत्तेणं, जोगो___ "विदेहसुमाले तीसं वासाई विदेहत्ति कट्टअगारमझे
वगएणं, पाईणगामिणीए छायाए, वियत्ताए पोरिसीए, वसित्ताअम्मापिऊहिं कालगएहिं देवलोगमणुपत्तेहिं समत्त
छद्रेणं भत्तेणं अपाणएणं, एगसाडगमायाए, चंदप्पहाए पइण्णे संवच्छरं दलइत्ता जे से हेमंताणं पढमे मासे पढमे"
सिवियाए सहस्सवाहिणीए, सदेवमणुयासुराए परिसाए" मग्गसिरबहुलस्स दसमीपक्खेणं हत्थुत्तराहिं णक्खत्तेणं
जेणेवणायसंडे उज्जाणे तेणेव उवागच्छइ"पुरत्थाभिमुहे जोगोवगएणं अभिणिक्खमणाभिप्याए याविहोत्था।
सीहासणे णिसीयइ, आभरणालंकारं ओमुयइ। तओ णं (आचूला १५/२६)
वेसमणे देवे जन्नुव्वायपडिए समणस्स भगवओ महाश्रमण भगवान महावीर को पहले से ही मनुष्य
वीरस्स हंसलक्खणेणं पडेणं आभरणालंकारं पडिच्छइ। धर्मतायुक्त (केवल मनुष्य को होने वाला) अनुत्तर, अप्रतिपाति आधोवधि ज्ञानदर्शन प्राप्त था। उस ज्ञान से उन्होंने अपने
(आचूला १५/२९) निष्क्रमणकाल को जाना।
हेमंत ऋत के प्रथम मास का प्रथम पक्ष-मार्गशीर्ष का विदेहसुकुमार तीस वर्षों तक विदेह रूप में घर में कृष्ण पक्ष। दशमी तिथि, सुव्रत दिवस। विजय मुहूर्त। रहे । माता-पिता कालधर्म को प्राप्त कर देवलोक में उत्पन्न उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र का योग। पूर्वगामिनी छाया। अंतिम द्वारातत्यचात अपनी पतिता की पर्णता को जानका महावीर हुए। तत्पश्चात् अपनी प्रतिज्ञा की पूर्णता को जानकर महावीर
प्रहर का समय। दो दिन का निर्जल उपवास। उन्होंने एक ने वर्षभर दान दिया। हेमन्त ऋतु के प्रथम मास का पहला
शाटक लेकर सहस्र-वाहिनी चन्द्रप्रभा नामक शिविका में पक्ष-मार्गशीर्ष का कृष्ण पक्ष । दशमी तिथि। चन्द्रमा के साथ
बैठ अभिनिष्क्रमण किया। देव, मनुष्य और असुरों की परिषद् उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र का योग। अभिनिष्क्रमण का निर्णय
उनके पीछे-पीछे चल रही थी। शिविका जहां ज्ञातखंड (संकल्प) किया।
उद्यान था, वहां पहुंची। उससे उतरकर महावीर पूर्वाभिमुख ११. तीर्थंकर द्वारा वर्षीदान
सिंहासन पर बैठे, आभरण-अलंकार उतारे। तत्पश्चात् वैश्रवण संवच्छोण होहिति, अभिणिक्खमणं तु जिणवरिंदस्स।
देव ने घुटनों के बल बैठ श्रमण भगवान् महावीर के आभरणतो अत्थ-संपदाणं, पवत्तई पुव्वसूराओ॥
अलंकारों को एक श्वेत वस्त्रखंड में ग्रहण किया। एगा हिरण्णकोडी, अद्वैव अणूणया सयसहस्सा। ० देवदूष्यधारी महावीर सूरोदयमाईयं, दिज्जइ जा पायरासो ति॥ ...."एगं देवदूसमादाय एगे अबीए मुंडे भवित्ता तिण्णेव य कोडिसया, अट्ठासीतिं च होंति कोडीओ।। अगाराओ अणगारियंपव्वइए।"महावीरे संवच्छरं साहियं असितिं च सयसहस्सा, एयं संवच्छरे दिण्णं॥ मासं जाव चीवरधारी होत्था, तेण परं अचेले पाणिपडि(आचूला १५/२६/१-३) ग्गहए॥
(दशा ८ परि सू ७५, ७६) तीर्थंकर अभिनिष्क्रमण से एक वर्ष पूर्व, सूर्योदय से महावीर एक देवदूष्य ग्रहण कर, अकेले, अद्वितीय
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