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तीर्थंकर
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आगम विषय कोश-२
४. महावीर के कल्याणक नक्षत्र
ब्राह्मण-कुण्डपुर सन्निवेश में कोडालसगोत्र ऋषभदत्त ब्राह्मण ___"समणेभगवं महावीरे पंचहत्थुत्तरे यावि होत्था- की भार्या जालंधरगोत्रीया देवानंदा ब्राह्मणी की कुक्षि में १. हत्थुत्तराहिं चुए चइत्ता गब्भं वक्कंते २. हत्थुत्तराहिं सिंह-उद्भव की भांति गर्भ रूप में उत्पन्न हुए। गब्भाओ गब्भं साहरिए ३. हत्थुत्तराहिं जाए ४. हत्थुत्तराहिं . च्यवन-संहरणकाल-ज्ञान सव्वओसव्वत्ताए मुंडे भवित्ता अगाराओअणगारियं पव्वइए
समणे भगवं महावीरे तिणाणोवगए यावि होत्था५. हत्थुत्तराहिं "अणुत्तरे केवलवरनाणदंसणे समुप्पण्णे।
चइस्सामित्ति जाणइ, चुएमित्ति जाणइ, चयमाणेन जाणेइ, साइणा भगवं परिनिव्वुए॥ (आचूला १५/१, २) सुहमेणं से काले पण्णत्ते॥
श्रमण भगवान महावीर के पांच कल्याण हस्तोत्तर ..."साहरिज्जिस्सामित्ति जाणइ, साहरिएमित्ति (उत्तराफाल्गनी) नक्षत्र में हए-१. हस्तोत्तर नक्षत्र में च्यत जाणड, साहरिज्जमाणे वि जाणड...॥ हुए, च्युत होकर गर्भ में अवक्रांत हुए, २. देवानंदा के गर्भ से _ 'चवमाणे ण जाणइ' त्ति आन्तर्मुहूर्तिकत्त्वात्रिशला के गर्भ में संहृत हुए, ३. जन्मे, ४. सर्वात्मना मुण्डित च्छद्मस्थोपयोगस्य, च्यवनकालस्य च सूक्ष्मत्वात्। होकर अगारधर्म से अनगारधर्म में प्रव्रजित हुए, ५. अनुत्तर
_(आचूला १५/४, ७ वृ) केवलज्ञानवरदर्शन को सम्प्राप्त हुए।
श्रमण भगवान महावीर तीन ज्ञान (मति, श्रुत, अवधि) स्वाति नक्षत्र में भगवान का परिनिर्वाण हुआ।
सेसम्पन्न थे-च्यवन होगा-यह जानते थे, च्यवन हो गया है५. महावीर का गर्भ में आगमन
यह जानते थे, च्यवन हो रहा है-यह नहीं जानते थे, क्योंकि समणे भगवं महावीरे इमाए ओसप्पिणीए"दुसम- छद्मस्थ का उपयोग आंतर्मोहूर्त्तिक होता है और च्यवन का काल सुसमाए समाए बहु वीतिक्कंताए-पण्णहत्तरीए वासेहिं, बहुत सूक्ष्म होता है। महावीर मेरा संहरण होगा'-यह जानते थे, मासेहि य अद्धणवमेहिं सेसेहिं, जे से गिम्हाणंचउत्थे मासे, संहरण हो गया है-यह जानते थे, संहरण हो रहा है-यह भी अट्ठमे पक्खे-आसाढसुद्धे, तस्स णं आसाढसुद्धस्स जानते थे। (च्यवन एक समय में हो सकता है, स्वतः होता छट्ठीपक्खेणं"महाविजय-सिद्धत्थ-पुप्फुत्तर"वद्धमाणाओ है, अज्ञेय है। संहरण में असंख्यात समय लगते हैं, परकत महाविमाणाओवीसं सागरोवमाइं आउयं पालइत्ता""चुए है, ज्ञेय है।) चइत्ता इह खलु जंबुद्दीवे दीवे, भारहे वासे, दाहिणड्डभरहे ० महावीर का गर्भ-संहरण दाहिणमाहणकुंडपुरसन्निवेसंसि उसभदत्तस्स माहणस्स .."समणस्स भगवओ महावीरस्स अणुकंपए णं कोडालसगोत्तस्स देवाणंदाएमाहणीए जालंधरायणसगोत्ताए देवेणं 'जीयमेयंति कट्ट जे से वासाणं तच्चे मासे, पंचमे सीहोब्भवभूएणं अप्पाणेणं कुच्छिसि गब्भं वक्कंते॥ पक्खे-आसोयबहुले, तस्स णं आसोयबहुलस्स तेरसी
(आचूला १५/३) पक्खेणं"बासीतिहिं राइंदिएहिं वीइक्कंतेहिं तेसीइमस्स इस अवसर्पिणी कालखंड में दुःषम-सुषमा अर के राइंदियस्स परियाए वट्टमाणे ''तिसलाए खत्तियाणीए बहुत बीत जाने पर, पचहत्तर वर्ष और साढे आठ महीने वासिट्ठ-सगोत्ताए असुभाणं पुग्गलाणं अवहारं करेत्ता, शेष रहने पर, ग्रीष्म का चौथा महीना, आठवां पक्ष-आषाढ सुभाणं पुग्गलाणं पक्खेव करेत्ता कुच्छिसि गब्भंसाहरड़॥ का शुक्ल पक्ष, षष्ठी तिथि को श्रमण भगवान महावीर
जे विय से तिसलाए खत्तियाणीए कुच्छिसि गब्भे, महाविजय-सिद्धार्थ-पुष्पोत्तर वर्धमानक महाविमान में बीस तंपि य "देवाणंदाए"कुञ्छिसि साहरड़ ॥(आचूला १५/५, ६) सागरोपम का आयुष्य पूर्ण कर च्युत हुए, च्युत होकर इसी श्रमण भगवान महावीर के अनुकम्पक देव ने 'यह जम्बूद्वीप द्वीप में, भरतवर्ष के दक्षिणार्ध भरत में, दक्षिण जीत आचार है' ऐसा सोचकर, वर्षाकाल का तीसरा महीना,
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