________________
ज्ञान
८. ज्ञान विकास का क्रम
अव्वत्तमक्खरं पुण, पंचण्ह वि थीणगिद्धिसहिएणं । णाणावरणुदपणं, बिंदियमाई कमविसोही ॥ तं च सव्वथोवं पुढविकाइयाणं, कस्मात् ? निश्चेष्टत्वात्। ततः क्रमाद् यावद् वनस्पतिकाइयाणं विसुद्ध - तरं, ततो परं बिंदियमादी कमविसोही जाव अणुत्तरोववाइयाणं, ततो वि चोद्दसपुव्वीणं विसुद्धतरं सव्वं । (बृभा ७५ चू) पृथ्वी, अप्, तेजस्, वायु और वनस्पति - ये पांचों स्थावरकाय स्त्यानर्द्धि निद्रा से युक्त होते हैं। उनका ज्ञान ज्ञानावरण- दर्शनावरण के अत्यंत उदय के कारण सुप्त या मूच्छित प्राणी की तरह अव्यक्त होता है, सर्वथा आवृत नहीं होता ।
पृथ्वीकायिक जीवों का ज्ञान सर्वजघन्य होता है क्योंकि वे निश्चेष्ट होते हैं। अप्काय यावत् वनस्पति जीवों का ज्ञान पृथ्वीका से विशुद्धतर होता है। उससे आगे द्वीन्द्रिय आदि से लेकर अनुत्तरोपपातिक देवों तक का ज्ञान क्रमशः विशुद्धतर होता है। चौदहपूर्वी का ज्ञान विशुद्धतम होता है। (अनावृत ज्ञानविकास के क्रम का यंत्र -
सर्वजघन्य ज्ञानाक्षर
अनंतभाग विशुद्धज्ञान
"
""
पृथ्वीका
अप्काय
तेजस्काय
वायुकाय
वनस्पतिकाय
द्वीन्द्रिय
त्रीन्द्रिय
चतुरिन्द्रिय
असंज्ञी पंचेन्द्रियतिर्यंच
सम्मूच्छिम मनुष्य
गर्भज तिर्यंच
गर्भज मनुष्य व्यंतर देव
भवनपति देव
ज्योतिष्क देव
Jain Education International
71
"
91
"
77
"
"
11
""
21
21
11
11
"
11
11
17
27
"
17
"
77
"
२७६
कल्पोपपन्न देव
नव ग्रैवेयक देव अनुत्तरौपपातिक देव
आगम विषय कोश - २
अनंतभाग विशुद्धज्ञान
11
17
For Private & Personal Use Only
11
"
- श्रीआको १ ज्ञान)
९. ज्ञान का परिमाण : अगुरुलघुपर्यव
इहैकैक आकाशप्रदेशः खल्वनन्तैरगुरुलघुपर्यायैः संयुक्तः, ते च सर्वेऽप्यगुरुलघुपर्याया ज्ञानेन ज्ञायन्ते, न च येन स्वभावेनैको ज्ञायते तेनापरोऽपि तयोरेकत्वप्रसंगात्, किन्त्वन्येन स्वभावेन, ततो यावन्तोऽगुरुलघुपर्यायास्तावन्तो ज्ञानस्वभावाः ।
,
'जावइय पज्जवा ते, तावइया तेसु नाणभेया वि । इति भवति सर्वाकाशप्रदेशेभ्योऽनन्तगुणम् । आह च बृहद्भाष्यम् - अक्खरमुच्चइ नाणं, तं पुण होज्जाहि किं पमाणं तु ? | भण्णइ अनंतगुणियं सव्वागासप्पएसेहिं ॥ किह होइ अनंतगुणं, सव्वागासप्पदेसरासीतो ? | भन्नइ जं एक्केक्को, आगासस्सा पदेसो उ ॥ संजुत्तोऽणतेहिं, अगुरुलघुपज्जवेहिं नियमेण । तेण उ अनंतगुणियं सव्वागासप्पएसेहिं ॥ (बृभा ६४ की वृ)
एक-एक आकाशप्रदेश अनन्त अगुरुलघु पर्यायों से संयुक्त है । वे सभी अगुरुलघु पर्याय ज्ञान के द्वारा ज्ञेय हैं। जिस स्वभाव (ज्ञानभेद) से एक पर्याय को जाना जाता है, यदि
उसी स्वभाव से अपर पर्याय को जाना जाये तो एकत्व का प्रसंग
आता है किन्तु ऐसा नहीं होता। भिन्न-भिन्न स्वभाव से भिन्न
भिन्न पर्यायों को जाना जाता है। जितने अगुरुलघु पर्याय हैं,
उतने ही ज्ञान के स्वभाव (भेद) होते हैं। इसलिए सर्व आकाश प्रदेश से अनन्तगुण ज्ञान के पर्यव होते हैं।
बृहद्भाष्यकार ने लिखा है- "ज्ञान को अक्षर कहा जाता है। शिष्य ने पूछा- ज्ञान का परिमाण कितना है? आचार्य ने कहा- ज्ञान का परिमाण सभी आकाश-प्रदेशों से अनन्त गुण है। शिष्य ने पुन: पूछा- यह कैसे ? आचार्य ने कहानियमतः एक-एक आकाश प्रदेश अनन्त अगुरुलघु पर्यायों से युक्त है। इसलिए सर्व आकाश-प्रदेशों से अनन्तगुण ज्ञान के पर्यव हैं।"
www.jainelibrary.org