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आगम विषय कोश-२
२५१
जिनकल्प
एगत्तभावणाए , न कामभोगे गणे सरीरे वा। बल के दो प्रकार हैं-शारीरिक बल और भावबल। सज्जइ वेरग्गगओ, फासेइ अणुत्तरं करणं॥ भाव का अर्थ हैअभिष्वंग। वह दो प्रकार का है
__ (बृभा १३४९-१३५२) १. अप्रशस्त राग-पुत्र, कलत्र आदि में स्नेहजनित राग। पुष्पपुर नगर में पुष्पकेतु महाराजा की महारानी पष्पवती २. प्रशस्त राग-आचार्य आदि में गुणबहुमान प्रत्ययिक राग।
(बलभावना का अभ्यासी मुनि इस द्विविध राग का ने एक बार एक युगल का प्रसव किया। पुत्र का नाम पुष्पचूल
धृति से विसर्जन कर देता है। यह भावबल है। जिनकल्पार्ह और पुत्री का नाम पुष्पचूला रखा। दोनों साथ-साथ बड़े हुए।
मुनि का शारीरिक बल भी अन्य व्यक्तियों की अपेक्षा विशिष्ट दोनों में गहरा अनुराग था। पुष्पचूल राजा बना। उसने पुष्पचूला का पाणिग्रहण ऐसे व्यक्ति से किया जो गृहदामाद (घरजंवाई) रह
होता है।)
यह सही है कि तपोभावना, ज्ञानभावना आदि से सके। वह भर्ता से केवल रात्रि में ही मिलती, दिनभर भाई के
उसका शरीरबल कृशतर हो जाता है। देह का अपचय होने साथ रहती। भाई पुष्पचूल प्रव्रजित हुआ तो वह भी अनुराग के कारण प्रवजित हो गई। कालान्तर में मुनि जिनकल्प
पर भी जिससे उसकी धृति निश्चल होती है, वैसा प्रयत्न साधना स्वीकार करने के लिए एकत्व भावना से अपने आपको
करता है, धृतिबल से आत्मा को सम्यग् भावित करता है।
जो मोक्षमार्ग को दुर्वह बनाने वाली है, देव आदि कृत भावित कर रहे थे। एक देव ने परीक्षा करने के बहाने आर्या
उपसर्ग जिसके सहायक हैं, कायर पुरुषों में जो भय पैदा करने पुष्पचूला का रूप बनाया। कई धूर्त व्यक्ति पुष्पचूला के साथ बलात्कार करने का प्रयत्न करने लगे। उस समय मुनि पुष्पचूल
वाली है, ऐसी सम्पूर्ण परीषहों की सेना यदि सज्जित होकर
पराभूत करने के लिए उस मुनि के सामने खड़ी हो जाए तो अत्यंत उधर से जा रहे थे। उन्हें देखकर पुष्पचूला आर्या चिल्ला उठी-ज्येष्ठार्य! मुझे बचाओ। मुनि प्रेमबन्धन से मुक्त हो
बद्धकक्ष वह जिनकल्पी अनाकुलत और निष्प्रकम्प मानस से उस
सेना के साथ युद्ध करता है। इस प्रकार बल भावना से भावित चुके थे। एगो हं नत्थि मे कोवि, नाहमन्नस्स कस्सइ-इस
सत्त्वसंपन्न धीर मुनि अपने मनोरथ को पूर्ण करता है। एकत्व भावना को गुनगुनाते हुए वे अपने स्थान पर चले गए।
तप आदि ये सभी भावनाएं धृति-बल से युक्त होती एकत्वभावना से भावित मुनि कामभोग, गण और
हैं। ऐसा कोई साध्य नहीं है, जिसे धृतिसम्पन्न पुरुष न साध शरीर में आसक्त नहीं होता। वह वैराग्य के कारण अनुत्तर
सके। (यह प्रसिद्ध वचन है-'सर्वं सत्त्वे प्रतिष्ठितम्।') जिनकल्प की आराधना करता है।
५. परिकर्म और अभिग्रह (पिंडैषणा) ० बलभावना : शरीरबल-धृतिबल
जिणकप्पियपडिरूवी, गच्छे वसमाण दुविह परिकम्म। भावो उ अभिस्संगो, सो उ पसत्थो व अप्पसत्थो वा।
ततियं भिक्खायरिया, पंतं लूहं अभिगहीया॥ नेह-गुणओ उ रागो, अपसत्थ पसत्थओ चेव॥
पाणी पडिग्गहेण व, सच्चेल निचेलओ जहा भविया। कामं तु सरीरबलं, हायइ तव-नाणभावणजुअस्स।
सो तेण पगारेणं, भावेइ अणागयं चेव॥ देहावचए वि सती, जह होइ धिई तहा जयइ॥
आहारे उवहिम्मि य, अहवा दुविहं तु होइ परिकम्म। कसिणा परीसहचमू , जइ उट्ठिज्जाहि सोवसग्गा वि।
पंचसु अ दोसु अग्गह, अभिग्गहो अन्नयरियाए॥ दुद्धरपहकरवेगा, भयजणणी अप्पसत्ताणं॥
(बृभा १३५८, १३६१, १३६२) धिडधणियबद्धकच्छो, जोहेड अणाउलो तमव्वहिओ।।
____पांचों भावनाओं से भावित मुनि जिनकल्पिक का बलभावणाएँ धीरो, संपुण्णमणोरहो होइ॥ प्रतिरूपी बनकर जिनकल्प स्वीकार करने से पर्व गच्छ में धिइ-बलपुरस्सराओ, हवंति सव्वा वि भावणा एता। रहता हुआ दो प्रकार का परिकर्म करता है। तीसरे प्रहर में तं तु न विज्जइ सज्झं, जं धिइमंतो न साहेइ॥ गोचरी करता है। रूक्ष और प्रान्त आहार ग्रहण करता है।
(बृभा १३५३-१३५७) अभिग्रहपूर्वक आहार की एषणा करता है।
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