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जिनकल्प
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आगम विषय कोश-२
(निर्ग्रथ के छह भेद हैं-पुलाक, बकुश, प्रतिसेवना- ९. लिंग-जिनकल्प स्वीकार करते समय द्रव्य और भाव-दोनों कुशील, कषायकुशील, निग्रंथ और स्नातक। जिनकल्पी में लिंग होते हैं। स्वीकार के बाद भाव लिंग निश्चित होता है। बकुश, प्रतिसेवनाकुशील और कषायकुशील-ये तीनों प्रकार हो द्रव्यलिंग कभी जीर्णता आदि कारणों से नहीं भी होता। सकते हैं। शेष तीन नहीं।-भ २५/३००-३०३)
१०. लेश्या-प्रतिपत्तिकाल में तीन प्रशस्त लेश्यायें होती हैं। ४, ५. तीर्थ और पर्याय-जिनकल्पी नियमतः तीर्थ में होते हैं पूर्वप्रतिपन्न जिनकल्पी सभी लेश्याओं-शुद्ध-अशुद्ध में वर्तमान (तीर्थ का विच्छेद होने पर या अनुत्पन्न तीर्थ में नहीं होते)। होता है। केवल अशुद्ध लेश्याओं में वर्तमान होते हैं। मुनि न जिनकल्पग्रहण के समय उनका जन्मपर्याय जघन्यतः उनतीस अत्यंत संक्लिष्ट लेश्याओं में होता है और न लंबे समय तक वर्ष का और उसमें भी मुनिपर्याय जघन्यतः बीस वर्ष का उनमें रहता है। होता है। उत्कृष्टत: जन्मपर्याय और मुनिपर्याय देशोन पूर्वकोटि ११. ध्यान-वे प्रवर्धमान धर्म्यध्यान में जिनकल्प स्वीकार हो सकता है।
करते हैं। पूर्वप्रतिपन्न मुनियों में कर्म की विचित्रता के कारण ६. आगम-जिनकल्प स्वीकार करने के पश्चात् वे नए श्रुत आर्तध्यान और रौद्रध्यान भी हो सकता है। उनमें कुशल का अध्ययन नहीं करते, किन्तु चित्तविक्षेप से बचने के लिए परिणामों की तीव्रता होने से आर्तध्यान और रौद्रध्यान प्रायः पूर्व अधीत श्रुत का सम्यक् अनुस्मरण करते हैं।
निरनुबन्ध होते हैं। ७. वेद-प्रतिपत्तिकाल में स्त्रीवेदवर्जित पुरुषवेद या असंक्लिष्ट १२. गणना-एक समय में जिनकल्प को स्वीकार करने वालों नपुंसकवेद होता है। पूर्वप्रतिपन्न की अपेक्षा वह सवेद भी की संख्या शतपृथक्त्व (२०० से ९००) और पूर्वप्रतिपन्न होता है और अवेद भी।
की अपेक्षा यह संख्या सहस्रपृथक्त्व (२००० से ९०००) जिनकल्पी उसी भव में केवलज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता, किन्तु उपशमश्रेणी में वेद के उपशांत होने पर वह __प्रतिपद्यमान जघन्यतः एक, दो, तीन आदि भी हो अवेद होता है
सकते हैं किन्तु पूर्वप्रतिपन्न तो जघन्यतः भी सहस्रपृथक्त्व उवसमसेढीए खलु, वेदे उवसामियम्मि उ अवेदो।
ही होते हैं, क्योंकि पांच महाविदेह में सदा इतने ही रहते हैं। न उ खविए तज्जम्मे, केवलपडिसेहभावाओ॥
१३. अभिग्रह-वे पेटा, अर्धपेटा आदि गोचरचर्या संबंधी या
अन्य इत्वरिक अभिग्रह स्वीकार नहीं करते। जिनकल्प की पञ्चवस्तु गाथा १४९८)
साधना ही उनका यावत्कथिक अभिग्रह होता है। उनके ०कल्प .....प्रायश्चित्त
गोचरचर्या आदि सारे उपक्रम प्रतिनियत और निरपवाद होते ठियमद्रियम्मि कप्पे, लिंगे भयणा उ दव्वलिंगेणं। हैं। उनका पालन ही उनके लिए परम विशुद्धिस्थान है। तिहि सुद्धाहि पढमया, अपढमया होज्ज सव्वासु॥ १४, १५. प्रव्राजना-मुण्डापना-वे किसी को प्रव्रजित और धम्मेण उ पडिवजइ, इअरेसु वि होज्ज इत्थ झाणेसु। मण्डित नहीं करते-यह उनकी कल्पमर्यादा है। यदि यह पडिवत्ति सयपुहुत्तं, सहसपुहुत्तं च पडिवन्ने॥ ज्ञात हो जाता है कि अमुक व्यक्ति अवश्य प्रव्रजित होगा तो भिक्खायरियाईया, अभिग्गहा नेव सो उ पव्वावे। उसे उपदेश देते हैं और संविग्न गीतार्थ के पास भेज देते हैं। उवदेसं पुण कुणती, धुवपव्वाविं वियाणित्ता॥ १६. प्रायश्चित्त-मानसिक सक्ष्म अतिचार के लिए भी उन्हें
मनसाऽपि सूक्ष्ममतीचारमापन्नस्यास्य सर्वजघन्यं चतर्गरु प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। चतुर्गुरुकं प्रायश्चित्तम्। (बृभा १४२१-१४२३ वृ) (जिनकल्पी को निरपेक्ष प्रायश्चित्त-द्र प्रायश्चित्त) ८. कल्प-प्रथम और अंतिम तीर्थंकर के समय में जिनकल्पी . कारण (निरपवाद), निष्प्रतिकर्म ....... कायोत्सर्ग स्थितकल्प वाले, मध्यम तीर्थंकरों के समय तथा महाविदेह निप्पडिकम्मसरीरा, न कारणं अस्थि किंचि नाणार्ड। में अस्थितकल्प वाले होते हैं।
जंघाबलम्मि खीणे, अविहरमाणो वि नाऽऽवज्जे॥
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