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आगम विषय कोश-२
२७३
ज्ञान
अथवा वर्ण के परिवर्तन से विपरीत वेष धारण कर लेता है, देखता है, बहिर्वर्ती भाग को नहीं देखता। कोई अनगार वृक्ष उसको अवधिज्ञानी जान लेता है। इसी प्रकार जो विद्यासिद्ध, के बहिर्वर्ती भाग को देखता है, अन्तर्वर्ती भाग को नहीं देखता। अंजनसिद्ध, देवता द्वारा परिगृहीत या देवताओं द्वारा सेवितसेवी कोई अनगार वृक्ष के मूल को देखता है, कंद को नहीं देखता। हैं तथा जो बीज आदि अन्नागार में भरे हुए हैं-उन सबको कोई अनगार वृक्ष के कंद को देखता है, मूल को नहीं देखता। अवधिज्ञानी जान लेता है।
इसी प्रकार बीजपर्यंत अनेक विकल्प हैं। -भ३/१५४-१६३ इसी प्रकार वह पृथ्वी, वृक्ष और पर्वतगत सारे द्रव्य १.जो बार-बार स्त्रीकथा, देशकथा, भक्तकथा और राजकथा शरीरगत द्रव्य, परमाणु तथा इन्द्रिय, मन और शरीर के आधार करते हैं. पर स्वास्थ्य-अस्वास्थ्य रूप सुख-दुःख भी प्रत्यक्षतः जान २. जो विवेक-व्युत्सर्ग द्वारा आत्मा को भावित नहीं करते, लेता है।
३. जो पूर्व-अपररात्र में धर्मजागरण नहीं करते, अवधिज्ञानी के लिए चक्षु आदि से अत्यन्त अनुपलब्ध ४. जो स्पर्शक (अभिलषणीय) एषणीय और उंछ सामुदानिक पदार्थ भी प्रत्यक्ष होते हैं। वह सभी द्रव्यों को जानता है किन्तु भैक्ष की सम्यक् प्रकार से गवेषणा नहीं करते-इन चार द्रव्य के समस्त पर्यायों को नहीं जानता। समस्त पर्यायों को जान । कारणों से निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों के अतिशय ज्ञान और दर्शन ले तो वह केवली हो जाए।
तत्काल उत्पन्न होते-होते रुक जाते हैं। २. क्षेत्रतः अवधिज्ञान-अवधिज्ञानी क्षेत्रगत जघन्यतः और इन चार कारणों से विपरीत आचरण करने वालों के उत्कृष्टतः जितने द्रव्यों को देखता है, उतने क्षेत्र (आकाश) को तत्काल उत्पन्न होने वाले अतिशायी ज्ञान और दर्शन उत्पन्न नहीं देख सकता, क्योंकि अवधिज्ञान का विषय मूर्त द्रव्य है, हो जाते हैं। -स्था ४/२५४, २५५ क्षेत्र अमूर्त है।
४. मनःपर्यवज्ञान : उत्पत्ति और स्वरूप ३. कालत: अवधिज्ञान-काल से अवधिज्ञानी की भजना है।
तओ णं समणस्स भगवओ महावीरस्स सामाइयं काल समयमात्र परिणामी होता है। वह अमूर्त होने के कारण
खाओवसमियं चरित्तं पडिवन्नस्स मणपज्जवणाणे णामं अवधिज्ञानी का विषय नहीं बनता। परन्तु ऐसा कौन-सा
णाणे समुप्पन्ने-अड्डाइज्जेहिं दीवेहिं दोहि य समुद्देहिं काल है, जो द्रव्य का पर्याय न हो? वह द्रव्य का ही एक पर्याय है-'दव्वस्स चेव सो पज्जातो' इसलिए वह अवधिज्ञानी
सण्णीणं पंचेंदियाणंपज्जत्ताणं वियत्तमणसाणं मणो-गयाई के लिए प्रत्यक्ष है। पर्यायों में भी कतिपय पर्याय अवधिज्ञान
भावाइं जाणेइ।
(आचूला १५/३३) के विषय बनते हैं।
श्रमण भगवान् महावीर ने सामायिक नामक क्षायो४. भावतः अवधिज्ञान-भाव से अवधिज्ञानी अनन्त भावों को पशमिक चारित्र ग्रहण किया, उसी समय उनके मनःअर्थात् सर्व भावों के अनन्तवें भाग को जानता है। पर्यवज्ञान समुत्पन्न हुआ, जिससे वे अढ़ाई द्वीपों और दो * अवधिज्ञान के भेद आदि द्र श्रीआको १ अवधिज्ञान
समुद्रों (जम्बू-धातकीखंड-पुष्करार्ध-द्वीप और लवण(अवधिज्ञान विचित्र प्रकार का होता है। कोई
कालोदधि-समद्र) में वर्तमान पर्याप्त समनस्क व्यक्त मानस भावितात्मा अनगार वैक्रिय समदघात से समवहत वैक्रिय वाले पंचेन्द्रिय प्राणियों के मनोगत भावों को मनोद्रव्य के विमान में बैठकर जाते हुए देव को देखता है, विमान को आधार पर जानने लगे, मनोद्रव्य को साक्षात् जानने लगे। नहीं देखता। कोई अनगार विमान को देखता है, देव को
तं मणपज्जवनाणं, जेण वियाणाइ सन्निजीवाणं। नहीं देखता। कोई अनगार देव को भी देखता है और
णज्जमाणे, मणदव्वे माणसं भावं॥ विमान को भी देखता है। कोई अनगार न देव को देखता है जाणइ य पिहुजणो विहु, फुडमागारेहिँ माणसं भावं। और न अनगार को देखता है।
एमेव य तस्सुवमा, मणदव्वपगासिए अत्थे ॥ कोई भावितात्मा अनगार वक्ष के अन्तर्वर्ती भाग को
(बृभा ३५, ३६)
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