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ज्ञान
ज्ञान- ज्ञेय का बोध कराने वाला साधन ।
१. पांच ज्ञान: प्रत्यक्ष परोक्ष
२. आभिनिबोधिक ज्ञान
* इन्द्रियावरण - विज्ञानावरण
* अपायमति : सम्यक्त्व का हेतु
* 'जातिस्मृति ज्ञान
* श्रुतज्ञान
३. अवधिज्ञान के विषय
* छद्मस्थ का ज्ञानोपयोग आंतमौहूर्तिक द्र तीर्थंकर
४. मनः पर्यवज्ञान : उत्पत्ति और स्वरूप
* अतीन्द्रियज्ञान से चित्तसमाधि द्र चित्तसमाधिस्थान
५.
. केवलज्ञान : उत्पत्ति और स्वरूप
* केवलज्ञानी की पहचान कैसे ?
* एकरात्रिकी प्रतिमा से अतीन्द्रियज्ञान
६. ज्ञान का प्रयोजन
७. पहले ज्ञान, फिर आचरण
८. ज्ञान विकास का क्रम
* ज्ञानावरणीय कर्म
९. ज्ञान का परिमाण : अगुरुलघुपर्यव
* ज्ञान- दर्शन हेतु उपसम्पदा
* ज्ञान- आचार
* ज्ञान- भावना
द्र इन्द्रिय
द्र सम्यक्त्व
द्र जातिस्मृति
द्र श्रुतज्ञान
द्र कृतिकर्म द्र प्रतिमा
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द्र कर्म
द्र उपसम्पदा
द्र आचार द्र भावना
१. पांच ज्ञान : प्रत्यक्ष-परोक्ष ......भावम्मि नाणपणगं, पच्चक्खियरं च तं दुविहं ॥ अपरायत्तं नाणं, पच्चक्खं, तिविहमोहिमाईयं । जं परतो आयत्तं तं पारोक्खं हवइ सव्वं ॥ ओहि मणपज्जवे या, केवलनाणं च होंति पच्चक्खं । आभिणिबोहियनाणं, सुयनाणं चेव पारोक्खं ॥
( बृभा २४, २९, ३० )
ज्ञान के पांच प्रकार हैं- आभिनिबोधिक (मति) ज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनः पर्यवज्ञान और केवलज्ञान । इस ज्ञानपंचक के दो प्रकार हैं- प्रत्यक्ष और परोक्ष ।
जो ज्ञान अपनी उत्पत्ति में दूसरे का वशवर्ती नहीं है, वह प्रत्यक्ष ज्ञान है । जो चाक्षुष आदि विज्ञान अपनी उत्पत्ति में
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पर-चक्षु आदि के अधीन है, वह परोक्ष ज्ञान है।
अवधि, मनः पर्यव और केवल - ये तीनों ज्ञान प्रत्यक्ष हैं। मतिज्ञान और श्रुतज्ञान परोक्ष ज्ञान हैं।
द्र श्रीआको १ ज्ञान
* ज्ञान के भेद-प्रभेद आदि २. आभिनिबोधिक ज्ञान
आगम विषय कोश - २
पच्चक्ख परोक्खं वा, जं अत्थं ऊहिऊण निद्दिसइ ।" अत्थाणंतरचारिं, नियतं चित्तं तिकालविसयं तु । अत्थे य पडुप्पण्णे, विणियोगं इंदियं लहइ ॥ ( बृभा ३९, ४० )
जो प्रत्यक्ष और परोक्ष विषयों की वितर्कणा कर निर्णयपुरस्सर अर्थाभिमुख ( यथार्थ ) प्रतिपादन करता है, अनर्थाभिमुख - विपरीत नहीं होता, वह आभिनिबोधिक ज्ञान है । वह दो प्रकार का है - इन्द्रियनिश्रित और अनिन्द्रिय (मन) निश्रित ।
इन्द्रियों और मन का विषय भिन्न है।
मन अर्थानन्तरचारी - इन्द्रिय- व्यापार के पश्चात् प्रवृत्त होता है। वह नियतार्थ विषय वाला होता है- एक काल में अनेक विषयों में व्यापृत नहीं होता तथा वह त्रिकालविषय वाला होता है। इन्द्रियां वर्तमान विषय में प्रवृत्त होती हैं। * मतिज्ञान का विषय " द्र श्रीआको १ आभिनिबोधिकज्ञान ३. अवधिज्ञान के विषय
विवरीयवेसधारी, विज्जंजणसिद्ध देवताए वा । छाइय सेवियसेवी, बीयादीओ वि पच्चक्खा ॥ पुढवी तरुगिरिया सरीरादिगया य जे भवे दव्वा । परमाणू सुहदुक्खादओ य ओहिस्स पच्चक्खा ॥ अच्चतमणुवलद्धा, वि ओहिनाणस्स होंति पच्चक्खा । ओहिन्नाण परिगया, दव्वा असमत्तपज्जाया ॥ खित्तम्मि उ जाइए, पासइ दव्वाइँ तं न पासइ या । काले नाणं भइयं को सो दव्वं विणा जम्हा ॥ (बृभा ३१-३४)
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अवधिज्ञान के चार प्रकार हैं१. द्रव्यतः अवधिज्ञान - यह रूपी द्रव्यों को प्रत्यक्ष जानता है। t कोई व्यक्ति नेपथ्य परिवर्तन से, गुटिका प्रयोग से, स्वर
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