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आगम विषय कोश - २
पूरे चार मास-न न्यून न अधिक - एक स्थान पर रहते हैं। क्योंकि जिनकल्पी निरपवाद अनुष्ठानपरायण होते हैं। जो महाविदेह में स्थविरकल्पी-जिनकल्पी हैं, उनका मासकल्पपर्युषणाकल्प मध्यवर्ती साधुओं की तरह अस्थित होता है। १४. जिनकल्प- स्थिति के उन्नीस स्थान
खेत्ते काल चरित्ते, तित्थे परियाय आगमे वेए । कप्पे लिंगे लेसा, झाणे गणणा अभिगहा य ॥ पव्वावण मुंडावण, मणसाऽऽवन्ने वि से अणुग्धाया । कारण निप्पडिकम्मे, भत्तं पंथो य तइयाए ॥ (बृभा १४१३, १४१४)
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जिनकल्प की स्थिति (विद्यमानता) के उन्नीस बिन्दु हैं - १. क्षेत्र २. काल ३. चारित्र ४. तीर्थ ५. पर्याय ६. आगम ७. वेद ८. कल्प ९. लिंग १०. लेश्या ११. ध्यान १२. गणना (इन द्वारों की स्थिति वक्तव्य है) १३. अभिग्रह १४. प्रव्राजना १५. मुण्डापना १६. मानसिक अपराध में भी चतुर्गुरु प्रायश्चित्त १७. कारण १८. निष्प्रतिकर्म १९. भिक्षा और विहार तृतीय पौरुषी में ।
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• जन्म और सद्भाव की अपेक्षा क्षेत्र - काल जम्मण-संतीभावेसु होज्ज सव्वासु कम्मभूमीसु । साहरणे पुण भइयं, कम्मे व अकम्मभूमे वा ॥ ओसप्पिणीइ दोसुं, जम्मणतो तीसु संतिभावेणं । उस्सप्पिणि विवरीया, जम्मणतो संतिभावे य॥ नोसप्पिणिउस्सप्पे, भवंति पलिभागतो चउत्थम्मि । काले पलिभागेसु य, साहरणे होंति सव्वेसु ॥ (बृभा १४१५ - १४१७) १. क्षेत्र - जन्म और सद्भाव की अपेक्षा जिनकल्पी सब कर्मभूमियों में होते हैं। देव आदि के द्वारा संहरण होने पर उनका सद्भाव कर्मभूमि में भी हो सकता है, अकर्मभूमि में भी हो सकता है।
२. काल - अवसर्पिणी काल में उत्पन्न हों तो उनका जन्म तीसरे चौथे अर में होता है। सद्भाव की अपेक्षा से जिनकल्पी तीसरे, चौथे और पांचवें अर में भी हो सकते हैं। यदि उत्सर्पिणीकाल में उत्पन्न हों तो दूसरे, तीसरे, चौथे अर में
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जिनकल्प
जन्म लेते हैं । जिनकल्प का स्वीकार तीसरे और चौथे अर में ही करते हैं, क्योंकि दूसरे अर में तीर्थ नहीं होता ।
जहां काल अवस्थित है-न उत्सर्पिणी काल है और न अवसर्पिणीकाल है, वैसे चार प्रतिभाग हैं, सात क्षेत्र हैं१. सुषम- सुषमा प्रतिभाग - देवकुरु और उत्तरकुरु में । २. सुषमा प्रतिभाग हरिवर्ष और रम्यकवर्ष में । ३. सुषम - दुःषमा प्रतिभाग - हैमवत और ऐरण्यवत में । महाविदेह में । ४. दुःषम- सुषमा प्रतिभाग जन्म और सद्भाव से जिनकल्पी चतुर्थ प्रतिभाग में होते हैं, प्रथम तीन में नहीं। महाविदेह में उत्पन्न जिनकल्पी सुषम- सुषमा आदि छहों कालविभागों में संहरण की अपेक्षा से हो सकते हैं। भरत-ऐरवत और महाविदेह में संभूत जिनकल्पी संहरण की अपेक्षा से देवकुरु से संबंधित आदि सभी प्रतिभागों में हो सकते हैं।
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....... जिणकाले सो उ केवलीणं वा । .....
जिनकल्पिको नियमाद् जिनस्य - तीर्थकरस्य काले वा स्याद् अपरेषां वा गणधरादीनां केवलिनां काले । (बृभा ११७२ वृ) जिनकल्पिक नियमतः तीर्थंकर के समय में अथवा गणधर आदि केवलियों के समय में होते हैं। ० चारित्र
वेद
पढमे वा बीये वा, पडिवज्जइ संजमम्मि जिणकप्पं । पुव्वपडिवन्नओ पुण, अन्नयरे संजमे होज्जा ॥ नियमा होइ सतित्थे, गिहिपरियाए जहन्न गुणतीसा । जइपरियाए वीसा, दोसु वि उक्कोस देसूणा ॥ न करिंति आगमं ते, इत्थीवज्जो उ वेदों इक्कतरो । पुव्वपडिवन्नओ पुण, होज्ज सवेओ अवेओ वा ॥ (बृभा १४१८ - १४२० )
३. चारित्र - प्रथम और अंतिम तीर्थंकर के समय में छेदोपस्थापनीय चारित्र में तथा मध्यवर्ती तीर्थंकरों के समय में सामायिक चारित्र में जिनकल्प स्वीकार करते हैं। स्वीकार के पश्चात् उपशम श्रेणी में वर्तमान के सूक्ष्मसंपराय चारित्र तथा यथाख्यातचारित्र भी हो सकता है।
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