________________
आगम विषय कोश - २
गर्म पानी की भाप से पकाना उत्स्वेदिम है। उसमें जो अपक्व रह जाता है, वह उत्स्वेदिम आम है।
२. संस्वेदिम-तिल आदि । बटलोई आदि में पानी को गर्म करके, पिठरिका में प्रक्षिप्त तिलों को उस गर्म पानी से सींचा जाता है। इस विधि से वे तिल पकते हैं। उन संस्विन्न तिलों में जो अपक्व रह जाते हैं, वह संस्वेदिम आम है।
२६९
३. उपस्कृत - उपस्कृत चना, मूंग आदि में जो कंकटुक (कोरडू) आदि अपक्व रह जाते हैं, वे उपस्कृत आम 1 ४. पर्यायाम — अपक्व फल आदि इसके चार प्रकार हैं- १. ईंधन पर्यायाम - कोद्रवपलाल, शालिपलाल आदि को ईंधन कहा जाता है। आम आदि फलों को इस पलाल से वेष्टित कर पकाया जाता है। उसमें भी जो फल अपक्व रह जाते हैं, वे ईंधन पर्यायाम कहलाते हैं।
२. धूम पर्यायाम - तिन्दुक आदि फलों को धूम में पकाया जाता है। उसकी विधि यह है- एक गढ़ा खोदा जाता है। उसमें उपल रखे जाते हैं। उसके दोनों ओर दो गढ़े खोदे जाते हैं। उनमें तिन्दुक आदि फल भर दिए जाते हैं। मध्य वाले गढ़े में, जिसमें उपल हैं, उसमें आग लगाई जाती है। दोनों ओर के दो गढ़ों के पर्यन्तवर्ती छिद्र मध्यवर्ती गर्त के साथ संबद्ध कर दिए जाते हैं । मध्यवर्ती गढ़े से धूम उन दोनों गढ़ों में पहुंचता है, फैलता है और तत्रस्थित फलों को पका देता है। उनमें जो अपक्व रह जाता है, वह धूमपर्यायाम है। ३. गंधपर्यायाम - अपक्व फलों के बीच पके हुए फल डाले जाते हैं। उन पके हुए फलों की गंध से अपक्व फल पक जाते हैं। उनमें भी जो अपक्व रह जाते है, वे गंधपर्यायाम हैं। ४. वृक्षपर्यायाम - वृक्ष की शाखाओं पर काल के परिपाक के साथ-साथ कुछेक फल पक जाते हैं और कुछ अपक्व ही रह जाते हैं। वे अपक्व फल वृक्षपर्यायाम हैं।
भाव आम का अर्थ है - चारित्र की अपरिपक्वता । उद्गम, उत्पादन और एषणा के दोष भावआम हैं। (सव्वामगंध परिण्णाय निरामगंधो परिव्वए । - आ २/१०८)
अथवा असंयम भावतः आमविधि है।
भाव आम का अन्य प्रकार भी है- सौ वर्ष की उम्र वाला पुरुष सौ वर्ष पूर्ण किए बिना ही मृत्यु को प्राप्त हो जाता है, वह भावतः आम आयुष्य है ।
Jain Education International
जीवनिकाय
१५. पृथ्वी आदि के अचित्त होने के हेतु जोअणसयं तु गंता, अणहारेणं तु भंडसंकंती । वाया-गणि-धूमेण य, विद्धत्थं होइ लोणाई ॥ हरियाल मणोसिल पिप्पली य खज्जूर मुद्दिया अभया । आइन्नमणाइन्ना, ते वि हु एमेव नायव्वा ॥ आरुहणे ओरुहणे, निसियण गोणादिणं च गाउम्हा । भुम्माहारच्छेदे, उवक्कमेणं च परिणामो ॥ (बृभा ९७३ - ९७५) नौ कारणों से लवण आदि अचित्त हो जाते हैं१. सुदूर नयन - सचित्त लवण आदि अपने स्थान से ले जाए
हुए प्रतिदिन बहु- बहुतर के क्रम से विध्वस्त होते हुए सौ योजन से दूर ले जाने पर सर्वथा परिणत - अचित्त हो जाते हैं। क्योंकि उन्हें अपने उत्पत्तिस्थान से दूर होने पर स्वप्रायोग्य आहार की प्राप्ति नहीं होती है।
२. भाण्डसंक्रमण - एक पात्र से दूसरे पात्र में अथवा एक भाण्डशाला से दूसरी भाण्डशाला में संक्रमण होने से । ३-५. हवा से, अग्नि से और रसोई आदि में धुएं से ।
इसी प्रकार हरिताल, मनःशिला, पिप्पली, खजूर, द्राक्षा और हरीतकी भी लवण की भांति अचित्त हो जाते हैं । किन्तु इनमें से पिप्पली, हरीतकी आदि आचीर्ण हैं। खजूर, द्राक्षा आदि अनाचीर्ण होने से मुनि के लिए अकल्पनीय हैं। ६. आरोहण-अवरोहण - शकट, बैल आदि की पीठ पर नमक आदि का बार-बार आरोहण-अवरोहण होने से।
७. निषीदन और ऊष्मा - लवण आदि के बोरों पर मनुष्य बैठते हैं, उनके तथा बैल आदि के शरीर की ऊष्मा से । ८. आहार-विच्छेद- लवण आदि जीवों का जो पृथिवी आदि आहार है, उसका व्यवच्छेद होने से।
९. उपक्रम - शस्त्र से उपहत होने पर। शस्त्र के तीन प्रकार हैं• स्वकायशस्त्र, जैसे-मधुर जल का लवण जल, पीली मिट्टी का काली मिट्टी |
० परकायशस्त्र, जैसे- जल का अग्नि और अग्नि का जल । ० तदुभयशस्त्र, जैसे- शुद्ध जल का मिट्टी युक्त जल । व्युत्क्रांतयोनिकाः- - अशस्त्रोपहता अप्यायुःक्षयेणाचित्तीभूताः । (बृभा ९९८ की वृ)
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org