________________
जीवनिकाय
२६८
आगम विषय कोश-२
लेता है। कंद कंद के जीव से स्पृष्ट और मूल के जीव से तल नालिएर लउए, कविट्ठ अंबाड अंबए चेव। प्रतिबद्ध होता है, वह मूल के आहार में से अपना आहार एअं अग्गपलंबं, नेयव्वं आणुपुव्वीए॥ ग्रहण कर लेता है। इसी प्रकार स्कंध कंद से, त्वचा स्कंध से, ..."तेणऽग्गपलंबेणं, तु सूइया सेसगपलंबा ॥ शाखा त्वचा से, प्रवाल शाखा से, पत्र प्रवाल से, पुष्प पत्र से,
(बृभा ८५१, ८५२, ८५५) फल पुष्प से और बीज फल से अपना आहार ग्रहण करता
० मूलप्रलम्ब-वल्लीपलाशक, सिग्गुक, ताल, सल्लकीहै।-भ७/६२, ६५)
इनके मूल । इनके अतिरिक्त अन्य मूलप्रलंब भी हैं, जो खाने १२. बीज : परीत-अनंत
के उपयोग में आते हैं। ...जोणिग्याते व हतं, तदादि वा होड वणकाओ॥ . अग्रप्रलम्ब-तलफल, नालिकेरफल, लकचफल, कपित्थफल,
बीजं वनस्पतीनां योनिः-उत्पत्तिस्थानम"तद- आम्रातकफल, आम्रफल, कदलीफल, बीजपर आदि के अग्र। बीजमादिर्यस्य स तदादिः, सर्वेषामपि वनस्पतीनां तत एव मूल और अग्र प्रलंब के ग्रहण से शेष कंद आदि प्रसूतेः।
(बृभा ९३३ ७) प्रलंब भी सूचित किए गए हैं। इस प्रकार मूल आदि के भेद बीया.......... परित्तणंतकाए या..... से प्रलंब के दस प्रकार हैं।
(निभा २४८) १३. आहार में वनस्पति की प्रधानता जीवउप्पत्तिट्ठाणं जोणी भवति। परित्ता जोणी जस्स छहि णिप्पजति सो उ, .... । पलंबस्स तं भण्णति परित्तजोणी, परित्तं अणंतं ण पाहण्णं बहुयत्तं, णिप्फज्जति सुहं च ॥ भवति। (निभा २५६ की चू)
(निभा ४८३७) वनस्पतिकाय की योनि है बीज । वह वनस्पतिजगत् यद्यपि आहार षड्जीवनिकाय-त्यक्त शरीर से निष्पन्न में आदिभूत है, क्योंकि सर्व वनस्पति की उसीसे उत्पत्ति होता है, फिर भी उसमें वनस्पति की प्रधानता और प्रचुरता होती है, इसलिए बीज उपहत होने पर निरपेक्ष रूप से रहती है। जैसा वनस्पतिकाय से आहार सहजता से निष्पन्न मूल आदि भी उपहत होते हैं।
होता है, वैसा अन्य जीवनिकाय से शक्य नहीं है। जीव के उत्पत्तिस्थान को योनि कहा जाता है। जिस १४. आम के प्रकार : पक्व-अपक्व-मीमांसा प्रलंब की योनि परीत होती है, वह परीतयोनि प्रलंब कहलाता
.."उस्सेइम संसेइम, उवक्खडं चेव पलियामं॥ है। बीज प्रत्येक और अनंत-दोनों प्रकार के होते हैं। जो
उस्सेइम पिट्ठाई, तिलाइ संसेइमं तु णेगविहं । प्रत्येकशरीरी है, वह अनंतकायिक नहीं होता।
कंकडुयाइ उवक्खड, अविपक्करसं तु पलियामं॥. (योनिभूत-योनि अवस्था को प्राप्त बीज में जो जीव
इंधण धूमे गंधे, वच्छप्पलियामए अ आमविही। उत्पन्न होता है, वह पूर्व बीज-जीव भी हो सकता है अथवा कोद्दवपलालमाई, धूमेणं तिंदुगाइ पच्चंते।' अन्य जीव भी हो सकता है। जो जीव मल-जडरूप में परिणत
मज्झऽगडाऽगणि पेरंत तिंदुया छिद्दधूमेणं॥ होता है, वही प्रथम पत्ते के रूप में परिणत होता है।
अंबग-चिब्भिडमाई, गंधेणं जं च उवरि रुक्खस्स। उगते हुए सभी किसलय अनंतकायिक होते हैं, फिर कालप्पत्त न पच्चइ, वत्थप्पलियामगं तं तु॥ वृद्धिंगत होते हुए वे प्रत्येकशरीरी भी हो सकते हैं, अनंतकायिक उग्गमदोसाईया, भावतों अस्संजमो अ आमविही। भी हो सकते हैं। प्रज्ञा १/४८/५१,५२)
अन्नो वि य आएसो, जो वरिससयं न पूरेइ ॥ ० मूल-अग्र प्रलम्ब
(बृभा ८३९-८४३, ८४६) झिझिरि-सुरभिपलंबे, तालपलंबे अ सल्लइपलंबे। आम अर्थात अपक्व के चार प्रकार हैंएतं मूलपलंबं, नेयव्वं आणुपुव्वीए॥ १. उत्स्वेदिम-पिष्ट आदि को वस्त्र में डालकर अध:स्थित
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org