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जिनकल्प
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आगम विषय कोश-२
हो, दीपक जलाया जाता हो, अग्नि आदि का जहां प्रकाश २६. प्रतिमा-वे मासिकी आदि भिक्षप्रतिमा तथा भद्रा, महाभद्रा, रहता हो, जहां गृहस्वामी यह कहे कि आप हमारे घर का आदि प्रतिमायें स्वीकार नहीं करते। (अपनी कल्पस्थिति का भी ध्यान रखें और अनुज्ञा लेते समय यह पूछे कि आप कितने प्रतिपालन ही उनका विशेष अभिग्रह होता है।) मुनि यहां रहेंगे-ऐसी वसति का जिनकल्पी परिहार करते हैं २७. मासकल्प-जिनकल्पी सूत्र और अर्थ में विशारद, संहनन क्योंकि वे किसी के मन में सूक्ष्मतम भी अप्रीति उत्पन्न नहीं और धृति से युक्त होते हैं इसलिए वे जिनकल्प से संबंधित करते।
अभिग्रहयुक्त एषणा में समर्थ होते हैं। साभिग्रह एषणा भिक्षाचर्या ....... मासकल्प
मासकल्पस्थिति अनुपालक के सम्भव है। तइयाइ भिक्खचरिया, पग्गहिया एसणा य पुव्वुत्ता।
वे जिस ग्राम में मासकल्प करते हैं, उस ग्राम को एमेव पाणगस्स वि. गिण्हड अ अलेवडे दो वि छह वीथियों (भागों) में विभक्त कर प्रतिदिन एक-एक आयंबिलं न गिण्हइ, जं च अणायंबिलं पि लेवाडं।
वीथि में भिक्षा के लिए जाते हैं। वे अनियतवृत्ति होते हैं, न य पडिमा पडिवज्जद, मासाई जा य सेसाओ उनके उपयुक्त विधि से एषणा करने से आधाकर्म आदि कप्पे सुत्त-ऽत्थविसारयस्स संघयण-विरियजुत्तस्स।
दोषों का परिहार सहजता से हो जाता है। जिणकप्पियस्स कप्पइ, अभिगहिया एसणा निच्चं॥ एक वसति में सात जिनकल्पी से अधिक नहीं रहते।
वे एक साथ रहते हए भी परस्पर सम्भाषण नहीं करते। भिक्षा छव्वीहीओ गाम, काउं एक्किक्कियं तु सो अडइ। वज्जेउं होइ सुहं, अनिययवित्तिस्स कम्माई॥
के लिए एक वीथि में दो नहीं जाते। एक्काए वसहीए, उक्कोसेणं वसंति सत्त जणा। १३. जिनकल्प : मासकल्प और पर्युषणाकल्प अवरोप्परसंभासं, चयंति अन्नोन्नवीहिं च॥
दुविहो य मासकप्पो, जिणकप्पे थेरकप्पे य।" (बृभा १३९७-१४००, १४१२)
.."एमेव जिणाणं पि य, कप्पो ठितमट्ठितो होति॥
....."जिणाण नियमऽ४ चउरो य॥ ....."जहिं गहियं, तहि भुंजणे ___......।
....."जिणकप्पिया वि एवं, एमेव महाविदेहेसु॥ (निभा ४१४७)
मध्यमसाधूनां मासकल्पोऽस्थितः, पूर्वपश्चिमानां २१, २२. भिक्षाचर्या-पानक-वे तीसरे प्रहर में भिक्षाचर्या तुस्थितः। "प्रथमचरमतीर्थकरसत्कजिनकल्पिकानामृतुकरते हैं। उनकी एषणा अभिग्रहयुक्त होती है-सात पिण्डैषणाओं बद्धे नियमादष्टौ मासकल्पा वर्षासु चत्वारो मासा में से प्रथम दो को छोड़कर शेष पांच में से किसी एक के द्वारा अन्यूनाधिकाः स्थितकल्पतया मन्तव्याः, निरपवादानुष्ठानआहार और दूसरी के द्वारा पानक ग्रहण करते हैं, शेष तीन का परत्वादेषाम्।"महाविदेहेषु ये स्थविरकल्पिका जिनउस दिन प्रयोग नहीं करते।
कल्पिकाश्च तेऽप्यस्थितकल्पिकाः प्रतिपत्तव्याः। जिनकल्पी जिस प्रहर में आहार ग्रहण करते हैं, उसी
(बृभा ६४३१, ६४३२, ६४३४, ६४३६ वृ) प्रहर में उसका परिभोग करते हैं।
मासकल्प के दो प्रकार हैं-जिनकल्प और स्थविरकल्प। २३, २४. लेपालेप-अलेप-जिनकल्पिक लेपकृत ग्रहण करते स्थविरकल्पी की भांति जिनकल्पी का मासकल्प भी स्थित और हैं अथवा अलेपकृत? वे आहार और पानक अलेपकृत (वल्ल, अस्थित–दोनों प्रकार का होता है। मध्यवर्ती साधओंका मासकल्पचने, सौवीर आदि) ग्रहण करते हैं, लेपकृत नहीं। पर्युषणाकल्प अस्थित और प्रथम-चरम तीर्थवर्ती साधुओं का वह २५. आचाम्ल-वे आचाम्ल (खट्टा पानक) ग्रहण नहीं करते स्थित होता है।
और लेपकृत अनाचाम्ल भी ग्रहण नहीं करते। (आचाम्ल से प्रथम और चरम तीर्थंकर के समय जिनकल्पी ऋतुबद्ध मलभेद आदि दोष उत्पन्न होते हैं।)
काल में नियमत: आठ मासकल्प करते हैं और वर्षाकाल में
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