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जिनकल्प
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आगम विषय कोश-२
एगग्गया सुमह निज्जरा य नेव मिणणम्मि पलिमंथो। . एकत्व भावना : ममत्वविसर्जन न पराहीणं नाणं, काले जह मंसचक्खूणं॥ जइ वि य पुव्वममत्तं, छिन्नं साहूहिँ दारमाईसु। सुयभावणाएँ नाणं, दसण तवसंजमं च परिणमइ। आयरियाइममत्तं, तहा वि संजायए पच्छा॥ तो उवओगपरिण्णो, सुयमव्वहितो समाणेइ॥ दिट्ठिनिवायाऽऽलावे, अवरोप्परकारियं सपडिपुच्छं।
(बृभा १३४०-१३४४) परिहास मिहो य कहा, पुव्वपवत्ता परिहवेइ॥ यद्यपि उनका श्रुत अपने नाम की भांति सुपरिचित
तणुईकयम्मि पुव्वं, बाहिरपेम्मे सहायमाईसु। होता है, हीनाक्षर-अधिकाक्षर आदि दोषों से रहित होता है,
आहारे उवहिम्मि य, देहे य न सज्जए पच्छा। फिर भी कालपरिमाण का ज्ञान करने के लिए वे श्रत का
पुटिव छिन्नममत्तो, उत्तरकालं वविजमाणे वि। अभ्यास करते हैं।
साभाविय इअरे वा, खुब्भइ दटुं न संगइए॥ श्रुतपरावर्तना के आधार पर वे उच्छ्वास का परिमाण
(बृभा १३४५-१३४८) जान लेते हैं। उच्छ्वास से प्राण (उच्छ्वास-नि:श्वासात्मक), यद्यपि साधुओं का कलत्र, पुत्र आदि के प्रति ममत्व प्राण से स्तोक (सात प्राण परिमाण), स्तोक से मुहर्त पहले ही छिन्न हो जाता है किन्तु प्रव्रज्यापर्याय में आचार्य (घटिकाद्वय-परिमाण), मुहूर्त से पौरुषी और पौरुषी से दिन- आदि के साथ ममत्व जुड़ जाता है। रात के परिमाण को जान लेते हैं।
गुरु आदि के प्रति सस्नेह अवलोकन, उनके साथ आकाश के मेघ आदि से आच्छादित हो जाने पर भी आलाप-संलाप, भक्तपान-दान-ग्रहण रूप पारस्परिक उपकार, जिस क्रिया का जो प्रारम्भ काल और परिसमाप्तिकाल है, सूत्र-अर्थ आदि की प्रतिपृच्छा युक्त हास-परिहास, परस्पर उसे वे छाया-मापन के बिना स्वयं ही जान लेते हैं।
वार्ता-पूर्व प्रवृत्त इन सब प्रवृत्तियों का वह परिहार कर देता अथवा उनका श्रुताभ्यास इतना पुष्ट हो जाता है है। आचार्य और सहवर्ती साधुओं के प्रति बाह्य प्रेम को कृश कि वे उपसर्ग-देव आदि द्वारा दिन-रात का व्यत्यय किए कर, तत्पश्चात् आहार, उपधि और देह के ममत्व का विसर्जन जाने पर भी उपकरण-प्रत्युपेक्षा, आवश्यककरण, भिक्षा, करता है। विहार-इन सबके उपयुक्त काल को छाया-मापन के बिना सभी जीव अनन्त बार सब जीवों के साथ स्वजनभाव स्वयं ही जान लेते हैं।
और शत्रुभाव का अनुभव कर चुके हैं, इसलिए कौन अपना? सूत्रभावना की निष्पत्ति
कौन पराया?-इस एकत्व भावना से वह प्रेम बन्धन को छिन्न ० एकाग्रता-श्रुतपरावर्तना से चित्त एकाग्र होता है। कर देता है। ० महानिर्जरा-स्वाध्यायप्रत्यया महान् निर्जरा होती है।
जिनकल्पप्रतिपत्ति के पश्चात वह वास्तविक और ० अपरिमंथ-कालज्ञान के लिए सूर्यछाया का मापन नहीं देव आदि द्वारा वैक्रियशक्ति से निष्पादित स्वजनों को मारे करना पड़ता, अत: सूत्र-अर्थ का व्याघात नहीं होता। जाते हुए देखकर भी क्षुब्ध नहीं होता। ० स्वायत्तता-जैसे छद्मस्थ साधु का ज्ञान सूर्यछाया के अधीन । होता है, वैसे सूत्रभावना से भावित साधु का पौरुषी आदि पुष्फपुर पुष्फकेऊ, पुष्फवई देवि जुयलयं पसवे। कालविषयक ज्ञान पराधीन नहीं होता।
पुत्तं च पुष्फचूलं, धूअं य सनामिअं तस्स। श्रुतभावना से अपने आपको भावित करता हुआ मुनि सहवड्रियाऽणरागो, रायत्तं चेव पुष्फचूलस्स। ज्ञान, दर्शन और तपःप्रधान संयम को सम्यक् परिणत करता है। घरजामाउगदाणं, मिलइ निसि केवलं तेणं॥ इस प्रकार श्रुत के उपयोग मात्र से ही काल को जानने वाला पव्वज्जा य नरिंदे, अणुपव्वयणं च भावणेगत्ते। अव्यथित रहता हुआ श्रुतभावना से भावित हो जाता है। वीमंसा उवसग्गे, विडेहिँ समुहिं च कंदणया॥
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