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आगम विषय कोश-२
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जिनकल्प
० आहार न करने से या अल्पाहार से इन्द्रियां विषयों में सोता है। वह यदि जिनकल्पी होना चाहे तो शनैः-शनैः सम्प्रवृत्त नहीं होती।
अभ्यास कर निद्रा पर विजय प्राप्त करे। वह उपाश्रय आदि • वह दीर्घकालिक तपस्या में भी क्लांति का अनुभव नहीं में जीव-जन्तओं से होने वाले भय को भी जीते। करता और न ही स्निग्ध-मधुर रसों में आसक्त होता है। पांच प्रतिमाएं० तपोभावना से दमित पांचों इन्द्रियां जिसके अधीन हो जाती १ प्रथम प्रतिमा-यह उपाश्रय में की जाती है। सत्त्वभावना का हैं, वह इन्द्रिययोगाचार्य बन जाता है और उन्हें समाधिकारक अभ्यास करने वाला शेष सब साधुओं के सो जाने पर उपाश्रय बना देता है-इन्द्रियों का प्रयोग उस रूप में करता है, जिससे के किसी अपरिभोग्य सघन अंधकार वाले अपवरक, कोष्ठक ज्ञान आदि में समाधि उत्पन्न हो।
या अलिन्दक में कायोत्सर्गस्थित होकर भय पर विजय प्राप्त ० सत्त्वभावना : पांच प्रतिमाएं
करता है, जिससे प्रशस्त ध्यान में स्थिरता बढ़ सके। इस जेविय पुव्विं निसि निग्गमेसु विसहिंसुसाहस-भयाइं। अभ्यासकाल में वह बहुत कम नींद लेता है या नहीं भी लेता। अहि-तक्कर-गोवाई, विसिंसु घोरे य संगामे॥ वह सत्त्वभावना से अपने आपको इतना भावित कर लेता है कि पासुत्ताण तुयट्ट, सोयव्वं जं च तीसु जामसु। मूषक, मार्जार आदि के द्वारा स्पृष्ट होने पर या खाए जाने पर भी थोवं थोवं जिणइ उ, भयं च जं संभवइ जत्थ॥ भय से उद्वेलित नहीं होता। निशाचरों की लीलाओं को देखकर पढमा उवस्सयम्मी, बिइया बाहिँ तइया चउक्कम्मि। उसके सहसा भयोद्रेकजनित रोमांच नहीं होता और न वह वहां सुन्नघरम्मि चउत्थी, तह पंचमिया सुसाणम्मि॥ से पलायन करता है। भोगजढे गंभीरे, उव्वरए कोट्ठए अलिंदे वा। २. द्वितीय प्रतिमा- इसका अभ्यास उपाश्रय के बाहर स्थित तणुसाइ जागरो वा, झाणट्ठाए भयं जिणइ॥ होकर करना होता है। उपाश्रय में साधना करने वाले प्रथम छिक्कस्स व खइयस्सव, मूसिगमाईहिँ वा निसिचरेहि। प्रतिमा स्थित मुनि के जो भयस्थान होते हैं, वे उपाश्रय के जह सहसा न वि जायइ, रोमंचुब्भेय चाडो वा॥ बाहर साधना करने वाले के लिए प्रगुणित हो जाते हैं। उसे सविसेसतरा बाहिं, तक्कर-आरक्खि-सावयाईया। तस्कर, आरक्षक, श्वापद आदि के भय सहन करने पड़ते हैं। सुण्णघर-सुसाणेसु य, सविसेसतरा भवे तिविहा॥ ३-५. तृतीय यावत् पंचमी प्रतिमा-इनका अभ्यास क्रमश: देवेहिँ भेसिओ वि य, दिया व रातो व भीमरूवेहि। चतुष्पथ (चौराहे) पर, शून्यगृह और श्मशान में किया जाता तो सत्तभावणाए, वहइ भरं निब्भओ सयलं॥ है। वहां देव, मनुष्य और तिर्यंचकृत उपसर्गरूप भय होते हैं।
(बुभा १३३३-१३३९) वह उन सब पर विजय प्राप्त करता है। जो राजा, अमात्य, ग्रामरक्षक आदि गहवास में रहते
सत्त्वभावना का परिणाम-सत्त्वभावना का अभ्यासी साधक हुए नगरवृत्तान्त को जानने के लिए अथवा नगररक्षा के लिए।
दिन या रात में देवों के द्वारा भयंकर रूपों से डराये जाने पर रात्रि में घूमते थे, अहेतुक अथवा सर्प, तस्कर,गोप आदि का भी जिनकल्प के समग्र भार को निर्भयता से वहन करता है। सहेतुक भय सहन करते थे और जो घोर संग्राम में वीरता से . सूत्रभावना : श्रुतपरावर्तन से कालज्ञान प्रवेश करते थे, वैसे व्यक्ति भी यदि जिनकल्प को स्वीकार जइ वियसनाममिवपरिचियंसुअंअणहिय-अहीणवन्नाई। करना चाहते हैं तो उन्हें भी सत्त्वभावना का अवश्य अभ्यास कालपरिमाणहेउं, तहा वि खलु तज्जयं कुणइ॥ करना होता है।
उस्सासाओ पाणू, तओ य थोवो तओ वि य मुहुत्तो। स्थविरकल्पी मुनि पार्श्वशयन अथवा उत्तानशयन करता मुहुत्तेहिँ पोरिसीओ, जाणेइ निसा य दिवसा य॥ है, रोग आदि कारणों से रात्रि में तीन प्रहर तक सो सकता मेहाईछन्नेसु वि, उभओकालमहवा उवस्सग्गे। है और उत्सर्ग विधि के अनुसार वह रात्रि के तीसरे प्रहर में पेहाइ भिक्ख पंथे, नाहिइ कालं विणा छायं॥
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