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आगम विषय कोश-२
२४७
जिनकल्प
० सामाचारी-चक्रवाल आदि सामाचारी का अभ्यास करते हैं। शिष्यों का निष्पादन किया है-ऐसा करके मैं ऋणमुक्त हो ० स्थिति-जिनकल्प की अवस्थिति वक्तव्य है।
गया हूं, अब मेरे लिए आत्महित ही श्रेयस्कर है। २. अभ्युद्यत विहार : जिनकल्प आदि
(पूर्वरात्र और अपररात्र-ये दो पद हैं। .....'जयाचार्य जिण सुद्ध अहालंदे, तिविहो अब्भुज्जओ अह विहारो।
हर के अनुसार इन दोनों पदों से 'मध्यरात्रि' का अर्थ फलित होता
है। पूर्वरात्रि का अन्तिम भाग और पश्चिम रात्रि का पूर्वभागअब्भुज्जयमरणं पुण, पाओवग-इंगिणि-परिन्ना॥
यह अर्धरात्रि का समय है। .... अनयोगद्वारचूर्णि में चिन्तन (बृभा १२८३)
का समय रात्रि का दूसरा प्रहर फलित होता है। इससे मध्यरात्रि अभ्युद्यतविहार के तीन प्रकार हैं-जिनकल्प, शुद्ध- के अर्थ की पुष्टि होती है। .....पूर्वरात्र अपररात्र' इसकी दो परिहारकल्प और यथालन्दकल्प।
अर्थपरम्पराएं प्राप्त हैंअभ्युद्यतमरण के तीन प्रकार हैं--प्रायोपगमन, इंगिनी- १. रात्रि का प्रथम भाग और पश्चिम भाग। मरण और परिज्ञा-भक्तप्रत्याख्यान।
२. मध्यरात्रि।-भ २/६६ का भाष्य)
मध्यरात्रि में आचार्य पूनः आत्मचिंतन करते हैं-अब ० जिनकल्प प्रतिपत्ति से पूर्व धर्मजागरिका अणुपालिओ य दीहो, परियाओ वायणा वि मे दिना।
मैं अनुत्तर गुणों वाला अभ्युद्यतविहार (जिनकल्प आदि)
स्वीकार करूं? अथवा जिनशासन में विहित विधि से निप्फाइया य सीसा, सेयं खु महऽप्पणो काउं॥
अभ्युद्यतमरण से मृत्यु का वरण करूं-संलेखनापूर्वक अनशन किन्नु विहारेणऽब्भुज्जएण विहरामऽणुत्तरगुणेणं।
को स्वीकार करूं? आओ अब्भुज्जयसासणेण विहिणा अणुमरामि॥
विहार और मरण-ये दोनों अभ्युद्यत होने के कारण सयमेव आउकालं, नाउं पोच्छित्तु वा बहुं सेसं।
श्रेयस्कर हैं, अतः इन दोनों में से कौन सा पथ मुझे स्वीकार सुबहुगुणलाभकंखी, विहारमब्भुजयं भजइ॥
करना चाहिए? ___ आचार्येण सूत्रार्थयोरव्यवच्छित्तिं कृत्वा पर्यन्ते
विपुल गुणोंपलब्धि का आकांक्षी मुनि स्वयं अपने से पूर्वापररात्रकालसमये धर्मजागरिकां जाग्रतेत्थं चिन्त- अथवा अतिशय श्रुतज्ञानी आदि से अपने अवशिष्ट दीर्घ आयुष्य नीयम्, यथा..."तदेवं कृता तीर्थस्याव्यवच्छित्तिः, को जानकर अभ्युद्यत विहार (जिनकल्प) को स्वीकार करता तत्करणेन विहितमात्मनः ऋणमोक्षणम्""अनु-पश्चात् है। संलेखद्युत्तरकालं मरणं प्रतिपद्येऽहम्?"स्याद् बुद्धिः-द्वे इसमें विशेष विधि के तीन विकल्प हैंअप्येते अभ्युद्यतरूपतया श्रेयसी, अतः कतरदनयोः प्रति- १. यदि आयुष्य थोड़ा है, तो अनशन स्वीकार करे। पत्तव्यम् ?"""इह चायं विधिः-यदि स्तोकमेवायुरवशिष्यते २. यदि आयुष्य दीर्घ किन्तु जंघाबल क्षीण है, तो वृद्धावास ततः पादपोपगमादीनामेकतरमभ्युद्यतमरणं प्रतिपद्यते, अथ (स्थिरवास) में रहे। प्रचुरमायुः परं जंघाबलपरिक्षीणस्ततो वृद्धावासमध्यास्ते, ३. यदि आयु दीर्घ और जंघाबल सुदृढ है, तो अभ्युद्यतविहार अथाऽऽयुर्दीधैं न च जंघाबलपरिक्षीणस्तदाऽभ्युद्यतविहारं स्वीकार करे। प्रतिपद्यत इति। (बृभा १२८१, १२८२, १२८४ वृ)
० इत्वरिक गण निक्षेप : गणपालन दुष्कर सूत्र और अर्थ की अव्यवच्छित्ति करने के पश्चात् गणनिक्खेवित्तरिओ, गणिस्स जो व ठविओ जहिं ठाणे आचार्य पूर्वरात्र-अपररात्र/मध्यरात्रि में धर्मजागरिका करते हुए आह किमर्थमसावित्वरं गणादिनिक्षेपं विदधाति? इस प्रकार सोचते हैं-मैंने दीर्घकाल तक संयम जीवन का न यावज्जीविकम् ? उच्यते-इह चक्राष्टकविवरगामिना पालन किया है, प्रतीच्छक आदि शिष्यों के लिए उचित शिलीमुखेन वामलोचने पुत्रिकाया वेधनमिव दुष्करं वाचना भी दी है, तीर्थ की अव्यवच्छित्ति के लिए अनेक गणाद्यनुपालनम्, अतः पश्यामस्तावत्-एतेऽभि
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