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जिनकल्प
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आगम विषय कोश-२
अपोह-मार्गणा करते हुए जातिस्मृति ज्ञान प्राप्त कर सम्यक्त्व प्राप्त कर लेते हैं। * जातिस्मृति की प्रक्रिया आदि द्र श्रीआको १ जातिस्मृति जिनकल्प-विशिष्ट श्रुत-संहनन-धृति-सम्पन्न मुनि द्वारा संघ से विधिपूर्वक निर्गमन कर आजीवन किया जाने वाला साधना का विशेष प्रयोग। जिन की भांति विहरण। १. भावी जिनकल्पी : प्रव्रज्या आदि पद २. अभ्युद्यत विहार : जिनकल्प आदि ० जिनकल्प प्रतिपत्ति से पूर्व धर्मजागरिका
० इत्वरिक गणनिक्षेप : गणपालन दुष्कर ३.जिनकल्प के अधिकारी कौन? ४. जिनकल्प की पांच भावनाएं
० तपोभावना से इन्द्रिययोगाचार्य : सिंह दृष्टांत ० सत्त्वभावना : पांच प्रतिमाएं ० सूत्रभावना : श्रुतपरावर्तन से कालज्ञान ० एकत्वभावना : ममत्वविसर्जन ० पुष्पचूल दृष्टांत
० बलभावना : शरीरबल-धृतिबल ५. परिकर्म और अभिग्रह (पिंडैषणा)
० उपधि का विवेक ० इन्द्रियविजय का अभ्यास ० उत्कुटुकासन का अभ्यास
० परिणाम आदि की विशुद्धि ६.जिनकल्प का स्वीकरण ७. जिनकल्प-प्रतिपत्ता द्वारा क्षमायाचना ८. क्षमायाचना की निष्पत्ति ९. स्थापित आचार्य और शिष्यों को शिक्षा १०. गण-निष्क्रमण विधि ११. जिनकल्पी की सामाचारी
० पशु-पक्षी निवारण की मर्यादा १२. जिनकल्प-साधना के सत्ताईस द्वार
० श्रुत, संहनन, वेदना (ध्रुवलोच") * जिनकल्पी और केशलोच द्र पर्युषणाकल्प ० वसति ....... कतिजन
० भिक्षाचर्या ......"मासकल्प १३. जिनकल्प : मासकल्प और पर्यषणाकल्प
१४. जिनकल्प-स्थिति के उन्नीस स्थान * जिनकल्प और अवग्रह
द्र अवग्रह ० जन्म और सद्भाव की अपेक्षा क्षेत्र-काल ० चारित्र ...."वेद * जिनकल्प कल्पस्थिति
द्र कल्पस्थिति ०कल्प "प्रायश्चित्त
कारण (निरपवाद), निष्प्रतिकर्म .....""कायोत्सर्ग * जिनकल्पी के प्रतिलेखना काल * चिकित्सा संबंधी निषेध
द्र स्थविरकल्प १५. जिनकल्पी की उपधि के प्रकार
० उत्कृष्ट-मध्यम-जघन्य उपधि १६. जिनकल्पी की उपधि के विकल्प * औधिक-औपग्रहिक उपधि
द्र उपधि १७. प्रावरण १८.जिनकल्पी-स्थविरकल्पी का संस्तारक
० उत्कुटुकासन : निद्रा-जागरण * कौन महर्द्धिक : संघ या जिनकल्प द्र संघ
* जिनकल्पी : संघ-कार्य से बाह्य द्रकृतिकर्म १. भावी जिनकल्पी : प्रव्रज्या आदि पद
पव्वज्जा सिक्खापयमत्थग्गहणं च अनियओ वासो। निप्फत्ती य विहारो, सामायारी ठिई चेव॥
(बृभा ११३२) ० प्रव्रज्या-भावी जिनकल्पी तीर्थंकर आदि से धर्मश्रवण कर अथवा स्वयंसम्बुद्ध होकर प्रव्रजित होते हैं। ० शिक्षापद-प्रव्रजित हो ग्रहणशिक्षा और आसेवनशिक्षा का सम्यक् अभ्यास करते हैं। ० अर्थग्रहण-बारह वर्ष तक सूत्र-ग्रहणशिक्षा के पश्चात् अधीत सूत्रों का बारह वर्ष अर्थबोध करते हैं। द्र श्रुतज्ञान ० अनियतवास-नाना प्रदेशों में पदयात्रा करते हुए संघ की प्रभावना करते हैं। शास्त्रों के अभ्यास का तथा विविध देशीभाषाओं का प्रत्यक्षीकरण करते हैं।
निष्पत्ति-शिष्यों को सत्र-अर्थ, सामाचारी आदि में निष्पन्न करते हैं। विहार-जिनकल्प को स्वीकार करने का निश्चय करते
हैं।
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