________________
छेदसूत्र
कल्पाध्ययन में मूलगुण- उत्तरगुण अपराध संबंधी आभवत् व्यवहार एवं प्रायश्चित्त का प्ररूपण है, व्यवहार में उसकी दानविधि भी प्रतिपादित है । जो आभवत् व्यवहार और प्रायश्चित्त कल्प में नहीं हैं, उनका भी व्यवहार में निरूपण है।
कल्पाध्ययन में सामान्य रूप से प्रायश्चित्त का वर्णन है । व्यवहार में विशेष रूप प्रायश्चित्त का वर्णन है— प्रतिसेवना, संयोजना, आरोपणा और प्रतिकुंचना - इन चार भेदों का निरूपण है।
२७. कल्पाध्ययन और व्यवहार का विषय- भेद ...... कप्पारोवण, इहइ भणिता पुरिसजाया ॥ ......मासियसोही वणिया उ कप्पे | तस्स पुण इमं दाणं, भणियं आलोयणविधी य ॥ (व्यभा १४९, १८४) कल्पाध्ययन में प्रायश्चित्तार्ह पुरुषों के प्रकार प्ररूपित नहीं हैं, वे व्यवहार में हैं।
कल्प में मासिक आदि प्रायश्चित्त उपवर्णित है। व्यवहारसूत्र में उसकी दानविधि और आलोचनाविधि प्ररूपित है। • कल्प - व्यवहार का विस्तार पूर्वाचार्यकृत
कप्पव्ववहाराणं, भासं मोत्तूण वित्थरं सव्वं । पुव्वायरिएहि कयं, सीसाण हितोवदेसत्थं ॥ (व्यभा ४६९३)
कल्प और व्यवहार के भाष्य को छोड़कर उनका शेष सारा विस्तार पूर्वाचार्यकृत है। यह शिष्यों के हितोपदेश के लिए किया गया है।
२८. कल्प- व्यवहार की अर्हता
बहुस्सुए चिरपव्वइए, कप्पिए य अचंचले । raट्ठिए य मेहावी, अपरिस्सावी य जे विऊ ॥ पत्ते य अणुण्णाते, भावतो परिणामगे । एयारिसे महाभागे, अणुओगं सोउमरिहइ ॥ (बृभा ४००, ४०१ ) जो बहुश्रुत, चिरप्रव्रजित, कल्पिक, अचपल,
Jain Education International
आगम विषय कोश - २
अवस्थित, मेधावी, अपरिश्रावी और विद्वान् है, जिसमें पात्रता है, जिसे गुरु की अनुज्ञा प्राप्त है और जो भावतः परिणामक है - ऐसा महाभाग शिष्य कल्प और व्यवहार की व्याख्या सुनने के योग्य है । २९. कल्प, प्रकल्प आदि के प्रकृत
कप्पम्मि दोन्नि पगता, पलंबसुत्तं च मासकप्पे य। दो चेव य ववहारे, पढमे दसमे य जे भणिता ॥ पेढियाओ य सव्वाओ, चूलियाओ तधेव य । निज्जुत्ती कप्पनामस्स, ववहारस्स तथेव य ॥ (व्यभा २६६२, २६६३) कल्प के दो प्रकृत (संदर्भ/ प्रस्तुत - प्रसंग ) हैं - प्रलम्बसूत्र और मासकल्पसूत्र ।
व्यवहार के दो प्रकृत हैं- प्रथम उद्दशेक में आरोपणासूत्र तथा दसवें उद्देशक में पंचविध व्यवहारसूत्र ।
कल्प-व्यवहार में अन्य संदर्भ भी प्रस्तुत हैं। यथा-कल्प, प्रकल्प (निशीथ) आदि की पीठिका, सब चूलिकाएं, कल्प, व्यवहार, दशवैकालिक आदि की निर्युक्तियां । ३०. व्यवहार के अर्थाधिकार
२४४
अर्थाधिकारः स चेह दानप्रायश्चित्तमाभवत्प्रायश्चित्तमालोचनाविधिश्च । (व्यभापी प३)
व्यवहार के तीन अर्थाधिकार हैं - १. दानप्रायश्चित्त २. आभवत् प्रायश्चित्त और ३. आलोचनाविधि । ३१. भद्रबाहु - प्रदत्त व्यवहार : द्वादशांग का नवनीत किं पुण गुणोवदेसो, ववहारस्स तु विदुप्पसत्थस्स । ""दुवालसंगस्स णवणीतं ॥ व्यवहारसूत्रस्य चतुर्दशपूर्वधरभद्रबाहुस्वामिना (व्यभा ४५५२ वृ)
दत्तस्य'''' ।
व्यवहारसूत्र का जो समुचित और प्रशस्त गुणोपदेश (गुणोत्पादन के निमित्त उपदेश) है, वह द्वादशांग का नवनीत है, वह चतुर्दशपूर्वी आचार्य भद्रबाहु स्वामी द्वारा प्रदत्त है। छेदोपस्थापनीयंचारित्र - महाव्रतों का विस्तारपूर्वक आरोपण। पारांचित आदि प्रायश्चित्तयोग्य दोष सेवन करने पर पुन: चारित्र में उपस्थापन ।
द्र चारित्र
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org