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आगम विषय कोश-२
२४३
छेदसूत्र
निज्जूढाओ भद्दबाहूहि। (दशानि ५, ६ चू) कल्प शब्द के छह अर्थ हैं
अध्ययनदशा के दो प्रकार हैं-छोटी और बडी। १. सामर्थ्य-कल्पाध्ययन का अतिचार से मलिन मुनि की बड़ी अध्ययनदशाएं हैं छह अंग आगम-ज्ञातधर्मकथा,
प्रायश्चित्त के द्वारा विशोधि करने में समर्थ होता है। उपासकदशा, अन्तकृदशा, अनुत्तरोपपातिकदशा, प्रश्नव्याकरण
२. वर्णन-प्रायश्चित्त के जितने प्रकार हैं, उन सबका अथवा तथा विपाकश्रुत। जिस प्रकार वस्त्र की विभूषा के लिए मूलगुणों और उत्तरगुणों का इस सूत्र में वर्णन है। उसकी दशा-किनारी होती है, वैसे ही ये दशाएं हैं।
३. छेदन-तप प्रायश्चित्त अतिक्रान्त होने पर इस अध्ययन स्थविर-आचार्य भद्रबाहु ने शिष्यों पर अनुग्रह कर
के द्वारा पांच दिन अथवा अधिक दिन के मनि-पर्याय का नौवें पूर्व से इन छोटी अध्ययनदशाओं का निर्वृहण किया।
छेदन किया जाता है।
४. करण-कल्पाध्ययनवेत्ता वैसा प्रयत्न करता है, जिससे दशाश्रुतस्कंध की प्रथम दशा 'असमाधिस्थान' दृष्टि
मुनि प्राप्त प्रायश्चित्त की सम्यक अनुपालना कर सके। अथवा वाद के नौवें पूर्व (प्रत्याख्यानपूर्व) के असमाधि-स्थानप्राभृत से निर्मूढ है। शेष नौ दशाएं अपने-अपने सदृश नाम वाले
कल्पविद् प्रायश्चित्त देने में आचार्य के सदृश होता है।
५. औपम्य-कल्पअध्ययन पढ लेने से प्रायश्चित्त विधि में प्राभृतों से नियूँढ हैं। निर्वृहणकर्ता श्रुतकेवली स्थविर (आचार्य)
आचार्य पूर्वधर के सदृश हो जाता है। भद्रबाहु हैं।
६. अधिवास-कल्पाध्ययनवेत्ता मासकल्प और वर्षाकल्प में ० दशा : छेदसूत्रों में प्रमुखभूत
एकस्थान पर परिपूर्ण अधिवास करता है तथा प्रयोजन होने दसाओ"इमं पुण च्छेयसुत्तपमुहभूतं। पर न्यून या अधिक समय तक भी रहता है।
(दशाचू प २) २६. कल्प और व्यवहार दशाश्रुतस्कंध छेदसूत्रों में प्रमुखभूत है।
कप्पम्मि वि पच्छित्तं, ववहारम्मि वि तमेव पच्छित्तं। २५. कल्प शब्द के अर्थ
कप्पव्ववहाराणं, को णु विसेसो त्ति चोदेति॥ सामर्थ्य वर्णनायां च, छेदने करणे तथा।
जो अवितहववहारी, सो नियमा वट्टते तु कप्पम्मि। औपम्ये चाऽधिवासे च, कल्पशब्दं विदुर्बुधाः ।।
इति वि हु नत्थि विसेसो, अझयणाणं दुवेण्हं पि॥ सामर्थ्य तावदेवम्-कल्पाध्ययनमधीत्यातीचार
कप्पम्मि कप्पिया खलु, मूलगुणा चेव उत्तरगुणा य। मलिनस्य साधोः समर्थः प्रायश्चित्तेन विशोधिमापादयितुम्।
ववहारे ववहरिया, पायच्छित्ताऽऽभवंते य॥ वर्णनेऽपि-यावन्तः प्रायश्चित्तप्रकारास्तान् वर्णयती
अविसेसियं च कप्पे, इहइं तु विसेसितं इमं चउधा। दमध्ययनम्; अथवा मूलगुणान् उत्तरगुणांश्च कल्पयति
पडिसेवण संजोयण, आरोवण कुंचियं चेव॥ वर्णयतीति कल्पः। छेदनेऽपि-तपःशोधिमतिक्रान्तस्य
(व्यभा १५१-१५४) पञ्चकादिच्छेदनेन पर्यायं छिनत्ति। करणेऽपि-यद् दत्तं शिष्य ने पूछा-भंते ! कल्पाध्ययन में भी प्रायश्चित्त प्रायश्चित्तं तत्र तथा प्रयत्न करोति कल्पाध्ययनवेत्ता यथा का प्रतिपादन है और व्यवहार में भी उसी का प्रतिपादन है, यत् पारं नयति; अथवा कल्पयति जनयत्याचार्यकमिति फिर कल्प और व्यवहार में अंतर क्या है? कल्पः"औपम्येऽपि-..."कल्पाध्ययनेऽधीते भवति
गुरु ने कहा-जो अवितथ व्यवहारी होता है. वह पूर्वधरसदृशः प्रायश्चित्तविधावाचार्यः । अधिवासेऽपि- नियमतः कल्प में प्रवृत्त होता है और जो कल्प में प्रवृत्त होता कल्पाध्ययनवेत्ता कल्पे मासकल्पे वर्षाकल्पे वा कारण- है, वह अवितथ व्यवहारी होता है (कल्प, आचार और मन्तरेण परिपूर्ण कारणवशत ऊनमतिरिक्तं वा अधिवसतीति व्यवहार एकार्थक हैं)-इस दृष्टि से कल्प और व्यवहारकल्पः ।
(बृभा २ की वृ) दोनों अध्ययनों में कोई भेद नहीं है।
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