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आगम विषय कोश-२
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चित्तसमाधिस्थान
श्रेष्ठी श्रमण बना। एक बार उस श्रमण को प्रमत्त देखकर का दुःखोत्पादन-यह आत्मसंचेतनीय उपसर्ग है। त्रिविध व्यंतरी 'ने पूर्वभव के वैर के कारण उसे ठग लिया। देवकृत, मनुष्यकृत और तिर्यंचकृत उपसर्ग परसमुत्थ हैं। भ्राता दृष्टांत-दो भाई थे। बड़े भाई की पत्नी छोटे भाई में * उपसर्ग चतष्टयी के हेत द्र श्रीआको १ उपसर्ग अनुरक्त थी। अपनी कामेच्छापूर्ति के लिए उसने अपने पति
चित्तसमाधिस्थान-चैतसिक समाधान के हेतु। को विषमिश्रित भोजन खिलाकर मार डाला। छोटे भाई को यह ज्ञात हुआ तो वह विरक्त हो प्रवजित हो गया। देवर के चित्तसमाधिप्राप्ति की अर्हता प्रतिषेध से संतप्त वह मरकर व्यंतरी बनी। अवधिज्ञान से अज्जो ! इति समणे भगवं महावीरे समणा निग्गंथा व्यंतरी ने जब श्रमण (देवर) को प्रमत्त देखा तो छल लिया। यनिग्गंथीओ य आमंतेत्ता एवं वयासी-इह खलु अज्जो! पूर्वराग पश्चात् द्वेष में परिवर्तित हो गया।
निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा इरियासमिताणं भासा१०. उन्माद के हेतु : मोह आदि
समिताणं एसणासमिताणं आयाणभंडमत्तनिक्खेवणाउम्माओखलु दुविधो, जक्खावेसोय मोहणिज्जोया" समिताणं उच्चारपासवणखेलसिंघाणजल्लपारिट्ठावरूवंगिं दट्टणं, उम्मादो अहव पित्तमुच्छाए।"
णितासमिताणं मणसमिताणं वइसमिताणं कायसमिताणं (व्यभा ११४७, ११४८)
मणगुत्ताणं वइगुत्ताणं कायगुत्ताणं गुत्ताणं गुतिंदियाणं
गुत्तबंभयारीणं आयट्ठीणं आयहिताणं आयजोगीणं आयउन्माद दो प्रकार का होता है-यक्षावेशहेतुक और
परक्कमाणं पक्खियपोसहिएसु समाधिपत्ताणं झियायमोहकर्मोदयहेतुक।
माणाणं इमाई दस चित्तसमाहिट्ठाणाई असमुप्पन्नपुव्वाइं कोई रूपवती स्त्री को देखकर उन्मत्त हो जाता है।
समुप्पज्जिज्जा।
(दशा ५/७) पित्तप्रकोप और वातोद्रेक भी उन्माद का हेतु बनता है।
आर्यो! श्रमण भगवान् महावीर ने श्रमण-निग्रंथों और ११. वात-पित्त जन्य उन्माद की चिकित्सा
निग्रंथियों को आमंत्रित कर इस प्रकार कहावाते अब्भंगसिणेहपज्जणादी तहा निवाते य।
__ आर्यो! जो निग्रंथ-निग्रंथी ईर्यासमित, भाषासमित, सक्करखीरादीहि य, पित्ततिगिच्छा उ कातव्वा॥
एषणा समित, आदानभांड-अमत्र-निक्षेपसमित, उच्चार(व्यभा ११५२)
प्रस्रवण-श्लेष्म-सिंघाण-जल्ल-पारिष्ठापनिकासमित, वातज (वायुजन्य) उन्माद में तैल आदि से शरीर की
मनसमित, वचनसमित, कायसमित, मनोगुप्त, वचनगुप्त, मालिश की जाती है। घृत पिलाया जाता है। रोगी को निवात
__ कायगुप्त, गुप्त, गुप्तेन्द्रिय, गुप्तब्रह्मचारी, आत्मार्थी, आत्मा में रखा जाता है। पित्तमूर्छा से उन्मत्त व्यक्ति की शर्करा, का हित करने वाले, आत्मयोगी, आत्मा के लिए पराक्रम क्षीर आदि से चिकित्सा की जाती है।
करने वाले, पाक्षिक पौषध करने वाले, सुसमाहित होकर १२. उन्माद और उपसर्ग
ध्यान करने वाले होते हैं, उनके अभूतपूर्व दस-चित्तसमाधिमोहेण पित्ततो वा, आयासंचेयओ समक्खातो। स्थान उत्पन्न होते हैं। एसो उ उवस्सग्गो, इमो तु अण्णो परसमुत्थो॥ चित्तसमाधि के प्रकार तिविहे य उवस्सग्गे, दिव्वे माणुस्सए तिरिक्खे या ..."दस चित्तसमाहिट्ठाणाइं पण्णत्ताई"तं जहा
(व्यभा ११५३, ११५४) १. धम्मचिंता वा से असमुप्पन्नपुव्वा समुप्पज्जेज्जा सव्वं मोहोदय या पित्तोदय से उन्मत्त आत्मा संचेतक धम्मं जाणित्तए। २. सण्णिणाणे वा से असमुप्पन्नपुव्वे होती है (स्वयं के द्वारा स्वयं का दुःख उत्पन्न करती है।) समुप्पज्जेज्जा अहं सरामि। ३. सुमिणदसणे वा से - उपसर्ग के चार प्रकार हैं-आत्मा के द्वारा ही आत्मा असमुप्पन्नपुव्वे समुप्पज्जेज्जा अहातच्चं सुमिणं पासित्तए।
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