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आगम विषय कोश - २
देवद्युति - विशिष्ट शरीर तथा आभूषणों आदि की दीप्ति को तथा दिव्य देवानुभाव - उत्कृष्ट वैक्रिय आदि करने के सामर्थ्य को उस साधक को दिखाने के लिए प्रकट होते हैं, उन देवों की ऋद्धि, द्युति और अनुभाव को देखकर साधक के मन में आगमों के प्रति दृढ़ श्रद्धा पैदा होती है और धर्म के प्रति बहुमान - आन्तरिक अनुराग उत्पन्न होता है। इससे चित्त को समाधान प्राप्त होता है।
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५-७. इसी प्रकार विशिष्ट अवधिज्ञान, अवधिदर्शन और मनः पर्यवज्ञान उत्पन्न होने पर चित्त समाहित और शांत हो जाता है, विकल्प नष्ट हो जाते हैं।
८, ९. केवलज्ञान और केवलदर्शन - यहां केवली के चित्त का अर्थ है - चैतन्य । केवलज्ञान इन्द्रिय और मानसिक ज्ञान से अतीत होता है। वह चैतन्य का सम्पूर्ण जागरण है, वही चित्तसमाधि है। यहां कार्य में कारण का उपचार कर केवलज्ञानकेवलदर्शन को चित्तसमाधि का हेतु माना है ।
१०. केवलिमरण - यह सर्वोत्तम समाधि का स्थान है। केवलिमरण मरने वाला सिद्ध, बुद्ध, मुक्त और परिनिर्वृत हो जाता है । - सम १०/२ टिप्पण)
समाधि प्राप्ति के हेतु और परिणाम
ओयं चित्तं समादाय, झाणं समणुपस्सति । धम्मे ठिओ अविमणो, निव्वाणमभिगच्छइ ॥ ण इमं चित्तं समादाए, भुज्जो लोयंसि जायति । अप्पणी उत्तमं ठाणं, सण्णीनाणेण जाणइ ॥ अहातच्चं तु सुविणं, खिप्पं पासइ संवुडे । सव्वं चं ओहं तरती, दुक्खतो य विमुच्चइ ॥ पंताइ भयमाणस्स, विवित्तं सयणासणं । अप्पाहारस्स दंतस्स, देवा दंसेंति तातिणो ॥ सव्वकामविरत्तस्स, खमतो भयभेरवं । ओ से तोधी भवति, संजतस्स तवस्सिणो ॥ तवसा अवहट्टुलेसस्स, दंसणं परिसुज्झति । उड्डूमतिरियं च, सव्वं समणुपस्सति ॥ सुसमाहडलेसस्स, अवितक्कस्स भिक्खुणो । सव्वओ विप्पमुक्कस्स, आया जाणति पज्जवे ॥ जदा से णाणावरणं, सव्वं होति खयं गयं । तदा लोगमलोगं च, जिणो जाणति केवली ॥
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चित्तसमाधिस्थान
जदा से दंसणावरणं, सव्वं होइ खयं गयं । तदा लोगमलोगं च जिणो पासइ केवली ॥ चिच्चा ओरालियं बोंदिं, नामगोत्तं च केवली । आउयं वेयणिज्जं च, च्छित्ता भवति नीरओ ॥ (दशा ५ / ७ गा १-९, १६ )
जो रागद्वेष-मुक्त चित्त को धारण कर ध्यान में वस्तु के स्वभावों की प्रेक्षा- अनुप्रेक्षा करता है, आत्मस्वभाव स्थित और मध्यस्थ है, वह निर्वाण को प्राप्त होता है।
चित्तसमाधि को धारण कर आत्मा पुनः पुनः लोक में उत्पन्न नहीं होता । अपने उत्तम स्थान को संज्ञीज्ञान से जान लेता है ।
( संज्ञीज्ञान के उत्पन्न होने पर पूर्ववर्ती संख्येय भवों को जाना जा सकता है । - श्रीआको १ जातिस्मृति)
संवृत आत्मा यथातथ्य स्वप्न को देखकर शीघ्र ही संसार रूपी समुद्र से पार हो जाता है तथा शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकार के दुःखों से मुक्त हो जाता है।
अल्पाहारी, अन्तप्रान्तभोजी, विविक्तशयन-आसन सेवी, इन्द्रियों का दमन करने वाले और षट्कायिक जीवों के रक्षक संयत साधु को देव दर्शन होते हैं।
सर्व कामभोगों से विरक्त और भीम-भैरव उपसर्गों को सहन करने वाले तपस्वी संयत को अवधिज्ञान होता है।
जिसने तप के द्वारा अशुभ लेश्याओं को दूर कर दिया, उसका अवधिदर्शन अति विशुद्ध हो जाता है। वह सर्व ऊर्ध्वलोक, अधोलोक और तिर्यक्लोक को देखने लग जाता है।
सुसमाहित लेश्या वाला, वितर्क से रहित, भिक्षावृत्ति से निर्वाह करने वाला, सर्व प्रकार के संयोगों से मुक्त साधु मनः पर्यवज्ञानी हो जाता है।
जब जीव का समस्त ज्ञानावरण कर्म क्षीण होता है, तब वह केवली - जिन होकर लोक- अलोक को जानता है। जब जीव का समस्त दर्शनावरण कर्म क्षीण हो जाता है, तब वह केवली - जिन लोक- अलोक को देखता है।
केवली औदारिक शरीर को छोड़कर, नाम, गोत्र, आयुष्य और वेदनीय - इन चारों कर्मों का क्षय कर नीरजसर्वथा कर्ममुक्त हो जाता है।
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