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छेदसूत्र
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आगम विषय कोश-२
ओहणिसीहं पुण होति पेढिया सुत्तमो विभाओ उ। हो बद्धांजलि सूत्र-अर्थपदों को सुनता है। वह करबद्ध हो उस्सग्गो वा ओहो, अववाओ होति उ विभागो॥ प्रणतिपूर्वक प्रश्न पूछता है। अपूर्व अर्थों का अवधारण कर जे भणिता उ पकप्पे, पुव्वावरवाहता भवे सुत्ता। पुनः प्रणाम करता है। सो तह समायरंतो, सव्वो सो आयरणकप्पो॥ ४. शोधिकल्प-तीर्थंकर, चौदहपूर्वी आदि प्रत्यक्षज्ञानी पुरुष उस्सग्गे अववायं, आयरमाणो विराहओ होति। अपराधी की प्रायश्चित्तदान द्वारा शोधि करते हैं। प्रकल्पधारी अववाए पुण पत्ते, उस्सग्गनिसेवओ भइओ॥ आचार्य भी शोधिकरण का अधिकारी है क्योंकि यह प्रकल्प सुत्तत्थतदुभयाणं, गहणं बहुमाणविणयमच्छेरं।।
अध्ययन चौदहपूर्वी द्वारा निबद्ध है। उक्कुडु-णिसेज्ज-अंजलि-गहितागहियम्मियपणामो॥ १२. प्रकल्पधर : प्रायश्चित्तदान का अधिकारी कामंजिणपुव्वधरा, करिसुसोधिंतहा विखलुएण्हिं।
तिविहो य पकप्पधरो, सुत्ते अत्थे य तदुभए चेव। चोद्दसपुव्वणिबद्धो, गणपरियट्टी पकप्पधरो॥
सुत्तधरवज्जियाणं, तिगदुगपरियट्टणा गच्छे । __ (निभा ६६६६, ६६६७, ६६७१-६६७४)
(निभा ६६७६) निशीथ के चार कल्प हैं
आचारप्रकल्पधर के तीन प्रकार हैं-सूत्रधर, अर्थधर, १. श्रद्धानकल्प-संत्रनिबद्ध में श्रद्धा करना श्रद्धानकल्प है। सूत्राथधर। सूत्रधर प्रायश्चित्त देने का अधिकारी नहीं है। यह बहुविध है। इसके मुख्य दो भेद हैं
जो सूत्र और अर्थ-दोनों को धारण करता है, वह प्रायश्चित्त ओघ निशीथ-निशीथपीठिका।।
देने के लिए अधिकृत है। उसके अभाव में अर्थधर भी ० विभाग निशीथ-बीस उद्देशकों में वर्णित सूत्रसंग्रह और गच्छ में प्रायश्चित्त का प्रवर्तन कर सकता है। उनका अर्थ । अथवा सूत्रों में दर्शित उत्सर्ग विधि ओघ और १३. चतुर्विध अनुयोग : उद्देशकों की विषयवस्तु अपवाद विधि विभाग है।
पडिसेहो अववाओ, अणुण्णजतणा य होइणायव्वा। २. आचरणकल्प-प्रकल्प (निशीथ) के उन्नीस उद्देशकों में सुत्ते सुत्ते चउहा, अणुओगविही समक्खाया। जो पूर्वापर (उत्सर्ग-अपवाद) वाहक सूत्र और अर्थ हैं,
पडिसेहो जा आणा, मिच्छऽणवत्थो विराहणाऽवातो। उनका यथाविधि आचरण करना आचरणकल्प है।
बितियपदं च अणुण्णा, जयणा अप्पाबहूणं च॥ जो उत्सर्गस्थानों में अपवादस्थानों का आचरण करता
अवराहपदा सव्वे, वज्जेयव्वा य णिच्छओ एस। है, वह विराधक होता है। धृति और संहनन से सम्पन्न मुनि
पुरिसादिपंचगं पुण, पडुच्चऽणुण्णा उ केसिंचि ॥ अपवादसेवन की स्थिति उत्पन्न होने पर भी उत्सर्गविधि का
पडिसेविताणि पुव्वं, जो ताणि करेति एत्थ सुत्तं तु। प्रयोग करता है, वह आराधक है। अपवादस्थान की स्थिति
हत्थादिवायणंतं, दाणं पुण तस्स चरिमम्मि । में उत्सर्गस्थान का सेवन करने वाला धृति-संहननहीन मुनि
(निभा ६६८४, ६६८५, ६६८७, ६६९२) विराधना-स्थान को भी प्राप्त हो सकता है।
निशीथ के प्रत्येक सूत्र की अनुयोगविधि के चार ३. ग्रहणकल्प-अध्येता मुनि सूत्र, अर्थ और सूत्रार्थ के अंग हैं-प्रतिषेध, अपवाद, अनुज्ञा और यतना। ग्रहणकाल में श्रुतदाता का विनय करता है-भक्ति-बहुमान १. प्रतिषेध-आज्ञा, उत्सर्ग-अपवादस्थानीय सूत्र। करता है। वह अध्ययनकाल में आनन्दानुभूति के साथ आश्चर्य २. अपवाद-दोष, दोषस्थानों की प्रतिसेवना से मिथ्यात्व, प्रकट करता है-अहो! इन सूत्रपदों और अर्थपदों से कैसे- अनवस्था, आत्म-संयम-विराधना आदि। कैसे अपूर्व और गहन तत्त्वों का बोध होता है।
३. अनुज्ञा-अपवादपद। शिष्य वाचनाचार्य के लिए निषद्या की रचना करता ४. यतना-अपवाद की स्थिति आने पर बहुतर दोषस्थानों का है। स्वयं उत्कट्रक (उक) आसन अथवा निषद्या पर स्थित वर्जन, अल्पतर दोषस्थान का सेवन।
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