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आगम विषय कोश - २
हैं, वे लोक में भी निशीथ नाम से प्रसिद्ध हैं। लौकिक रहस्यसूत्र ( विद्या, मंत्र आदि) भी अपरिपक्व बुद्धि वालों के समक्ष प्रकाशनीय नहीं होते ।
० निर्वचन और प्रतिपाद्य
अट्ठविह कम्म- पंको, णिसीयते जेण तं णिसीधं ति । अविसेसे वि विसेसो, सुइं पि जं णेइ अण्णेसिं ॥ आयारे चउसु य, चूलियासु उवएस वितहकारिस्स । पच्छित्तमिहज्झयणे, भणियं अण्णेसु य पदेसु ॥ (निभा ७०, ७१ ) जिससे ज्ञानावरणीय आदि अष्टविध कर्मपंक क्षीण होता है, वह निशीथ है । यद्यपि सभी अध्ययन कर्मक्षीण करने में समर्थ हैं किन्तु निशीथ अध्ययन की अपनी विशेषता है। यह अपवाद बहुल है। अतः अगीतार्थ, अतिपरिणामक और अपरिणामक शिष्यों के लिए इसका श्रवण भी निषिद्ध है।
आचारांग तथा उसकी प्रथम चार चूलाओं (आचारचूला के पिण्डैषणा से विमुक्ति पर्यंत सोलह अध्ययनों) में मुनि की आचारविधि का निर्देश है। उन निर्देशों का अतिक्रमण या विपरीत आचरण होने पर जो प्रायश्चित्त प्राप्त होता है, उसका प्रतिपादन निशीथ अध्ययन में तथा कल्प, व्यवहार आदि में भी है।
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शिष्य ने पूछा- क्या अनाचार का ही प्रायश्चित्त है अथवा अन्य पदों का भी ? आचार्य कहते हैं— अतिक्रम, व्यतिक्रम तथा अतिचार का भी प्रायश्चित्त है।
शिष्य ने फिर पूछा- क्या आचार और आचारचूला में निर्दिष्ट तथ्यों के अतिक्रमण का ही प्रायश्चित्त कहा गया है ? आचार्य ने कहा- नहीं, ऐसी बात नहीं है । अन्यान्य सूत्रों (सूत्रकृतांग आदि) में भी विहित अनुष्ठानों के विपरीत आचरण में प्रायश्चित्त का विधान है।
.... दिट्ठा निसीधनामे सव्वे वि तहा अणायारा ॥ (व्यभा ३५१ ) निशीथ अध्ययन में प्रायश्चित्त के सब भेद तथा सभी अनाचार, अतिचार, अतिक्रम आदि प्रतिपादित हैं । विहिसुत्ते जो उ गमो, पढमुद्देसम्मि आदिओ सुत्ते । सो चेव णिरवसेसो, दसमुद्देसम्मि वासासु ॥ (निभा ३१२३)
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छेदसूत्र
सारा ही आचार विधिसूत्र ( आचारचूला) में है। आचारचूला के 'ईर्या' नामक तृतीय अध्ययन के प्रथम उद्देशक के प्रथम सूत्र में जो विधि निर्दिष्ट है, वही सम्पूर्ण विधि निशीथ के दसवें उद्देशक के 'प्रथम प्रावृट्' सूत्र में वक्तव्य है। १०. निशीथ : पांचवीं चूला
....पडिसेहो अणुण्णा, कारणं विसेसोवलंभो वा ॥ (निभा ५२०१)
...चतुर्थचूडात्मके आचारे यत्प्रतिषिद्धं तं सेवंतस्स पच्छित्तं भवति "जे भिक्खू हत्थकम्मं करेति, करेंतं वा सातिजति एवमादीणि सुत्ताणि, एस पडिसेहो | अत्थेण कारणं प्राप्य तमेवणुजानाति । तं जयणाए पडिसेवंतो सुद्धो । अजयणाए स पायच्छित्ती । कारणमणुण्णा जुगवं गता । विसेसोवलंभो इमो । आइल्लाओ चत्तारिचूलाओ कमेणेव अहिज्जंति, पंचमी चूला आयारपकप्पोति-वासपरियागस्स आरेण ण दिज्जति, ति-वास-परियागस्स वि अपरिणामगस्स अतिपरिणामगस्स वा न दिज्जति, आयारपकप्पो पुण परिणामगस्स दिज्जति । ( निभा १ की चू)
निशीथ में चार बाते प्रतिपादित हैं- प्रतिषेध, अनुज्ञा, कारण और विशेष उपलंभ ।
१. प्रतिषेध - आचारांग की प्रथम चार चूलाओं में जिन आचरणों का निषेध है, उनका सेवन करने वाला भिक्षु प्रायश्चित्त का भागी होता है। यथा- 'जे भिक्खू हत्थकम्मं करेति । ' (नि १/१ ) इत्यादि । २, ३. अनुज्ञा-कारण- कारण होने पर अर्थतः उन्हीं निषेधों की अनुज्ञा है । यतना से प्रतिसेवना करने वाला शुद्ध है। अयतनाशील प्रतिसेवी प्रायश्चित्तार्ह है ।
४. विशेष उपलंभ -- प्रथम चार चूलाएं क्रमशः पढ़ी जाती हैं। आचारप्रकल्प (निशीथ ) नामक पांचवीं चूला मुनिपर्याय के तीन वर्ष से पूर्व नहीं पढ़ी जाती। त्रिवर्षपर्याय वाला अपरिणामक या अतिपरिणामक मुनि भी इसका अध्ययन नहीं कर सकता, परिणामक ही इसके योग्य है।
११. निशीथ के चार कल्प
चहा णिसीहकप्पो, सद्दहणा आयरण गहण सोही । सद्दहण बहुविहा पुण, ओहणिसीहे विभागे य ॥
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