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आगम विषय कोश - २
छेदसूत्र
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कृतसामाचारीक - उपसम्पदा और मण्डली- इन दोनों प्रकार
जो शिष्य आचार्य के पास सूत्र, अर्थ और सूत्रार्थ
की सामाचारियों का समाचरण नहीं करने वाला।
पढ़कर उस आचार्य के नाम का अपलाप करता है, वह
० तरुणधर्मा - मुनिपर्याय के तीन वर्ष पूर्ण होने से पूर्व छेदश्रुत गुरुनिह्नवी है। सूत्राचार्य और अर्थाचार्य का अपलाप करने का अध्ययन करने वाला ।
गर्वित - थोड़ा सा अध्ययन कर गर्व से अविनीत होने वाला ।
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वाला क्रमशः चतुर्लघु और चतुर्गुरु प्रायश्चित्त का भागी होता है तथा अबोधि को प्राप्त करता है। इसमें गेरुक अर्थात् परिव्राजक का दृष्टांत इस प्रकार है
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प्रकीर्ण - छेदसूत्रों के रहस्य को अपरिणामक के समक्ष लेश रूप में बताने वाला।
एक नापित की क्षुरपेटिका विद्याबल से आकाश में ठहर जाती । एक परिव्राजक ने उस नापित की आराधना कर उससे वह विद्या प्राप्त की। अन्यत्र जाकर उसने अपने त्रिदण्ड को आकाश में प्रतिष्ठित किया। एक दिन राजा ने पूछा- यह तुम्हारी विद्या का अतिशय है या तप का अतिशय है ? परिव्राजक ने कहा- विद्या का अतिशय है। राजा ने पुनः पूछा- यह विद्या कहां से प्राप्त की ? उसने कहा- हिमवान् पर्वत पर 'फलाहार' नामक महर्षि से .....। इतना कहते ही त्रिदण्ड तत्काल गिर पड़ा।
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गुरुनिह्नवी - जिस गुरु के पास श्रुत-अध्ययन किया है, उस गुरु के नाम का अपलाप करने वाला ।
० प्रकीर्णप्रश्न- प्रकीर्णविद्य
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सोउं अणभिगताणं, कहेइ अमुगं कहिज्जई इत्थं । एस उ पइण्णपण्णी, पइण्णविज्जो उ सव्वं पि ॥ अप्पच्चओ अकित्ती, जिणाण ओहाव मइलणा चेव । दुल्लहबोहीअत्तं, पावंति पइण्णवागरणा ॥ (बृभा ७८४, ७८५)
जो अर्थ मण्डली में रहस्यपूर्ण ग्रंथों के अर्थ सुनकर वहां से उठता है और अपरिणतों को लेशमात्र बता देता है । जैसे इस सूत्र में प्रलम्ब ग्रहण करने की विधि है । लेशमात्र बताने वाला प्रकीर्णप्रज्ञ होता है। यहां प्रज्ञा का अर्थ हैछेदसूत्रों की रहस्यमयी वचनपद्धति ।
जो अपरिणतों के पूछने पर छेदसूत्रों के अन्तः पाती रहस्य को प्रकीर्ण रूप में प्रकट करता है, वह प्रकीर्णप्रश्न है ।
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जो छेदसूत्रों को उत्सर्ग और अपवादसहित जान कर अपरिणतों को समग्रता से बताता है, वह प्रकीर्णविद्य है ।
अपरिणामी अतिपरिणामी शिष्य रहस्यपूर्ण पदों को सुन लेते हैं, तो उनमें अविश्वास पैदा हो सकता है, क्योंकि वे विवक्षा या अपेक्षाभेद को नहीं जानते। वे अर्हतों का अपयश करते हैं। वे उत्प्रव्रजित भी हो सकते हैं या अपवाद पद सुनकर शंकाओं से ग्रसित हो ज्ञान-दर्शन- चारित्र को मलिन बना सकते हैं, दुर्लभबोधि भी बन सकते हैं।
गुरुनिह्नवी : परिव्राजक दृष्टांत
सुत्त - ऽत्थ - तदुभयाई, जो घेत्तुं निण्हवे तमायरियं । लहुया गुरुया अत्थे, गेरुयनायं
अबोही य ॥ (बृभा ७८६)
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६. साध्वी को छेदसूत्र की वाचना कब तक ?
तो जाव अज्जरक्खित, आगमववहारतो वियाणेत्ता । न भविस्सति दोसो त्ती, तो वायंती उ छेदसुतं ॥ आरेणागमरहिया, मा विद्दाहिंति तो न वाएंति । तेण कथं कुव्वंतं, सोधिं तु अयाणमाणीओ ॥ तो जाव अज्जरक्खिय, सद्वाण पगासयंसु वतिणीओ । असतीय विवक्खम्म वि, एमेव य होति समणा वि ॥ (व्यभा २३६५ - २३६७) आर्यरक्षित अंतिम आगमव्यवहारी थे (आगमव्यवहारी का न्यूनतम श्रुत है नौ पूर्व ) । वे आगमबल से जान लेते थे कि अमुक साध्वी को छेदसूत्र की वाचना देने में दोष नहीं है तो उसको वाचना देते थे ।
आर्यरक्षित के पश्चात् आगमव्यवहारी मुनि नहीं रहे तब आगमरहित अर्थात् श्रुतव्यवहारी साधुओं ने सोचा कि साध्वियां इनके अध्ययन 'अपना अनिष्ट न कर लें, इस भय से उन्हें छेदसूत्रों की वाचना देना बंद कर दिया।
आर्यरक्षित के समय तक साध्वी छेदश्रुतसम्पन्न साध्वी के पास आलोचना करती थी। गीतार्थ साध्वी के अभाव में गीतार्थ श्रमण के पास आलोचना की जाती थी। इसी प्रकार
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