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आगम विषय कोश - २
इस प्रकार से सब सूत्रों में अर्थ प्रतिपादित है। सूत्र और अर्थ में भाषित सर्व अपराधपद वर्जनीय हैं - यह नैश्चयिक दृष्टिकोण है। आचार्य, उपाध्याय, भिक्षु, स्थविर और क्षुल्लकइस पुरुषपंचक (अथवा प्रवर्तिनी, साध्वी आदि पंचक) की अपेक्षा से कहीं-कहीं विशेष अनुज्ञा है।
• बीस उद्देशकों की विषयवस्तु - आचारांग आदि में भिक्षु के लिए जिन कार्यों का निषेध है, उन प्रतिषिद्ध कार्यों का आचरण निशीथ के प्रथम उन्नीस उद्देशकों में प्रतिपादित है ।
यथ
भिक्खू हत्थकम् करेति । (नि १/१ ) भिक्खूसंत्तं वाति । (नि १९/३६)
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इन प्रायश्चित्त योग्य कार्यों के लिए प्रायश्चित्त का विधान प्रत्येक उद्देशक के अंतिम सूत्र में किया गया है। बीसवें उद्देश में प्रायश्चित्तदान की प्रक्रिया प्रतिपादित है । १४. निशीथ में चतुर्विध प्रायश्चित्त
उग्घायमणुग्घाया, मासचउम्मासिया उ पच्छित्ता । पुव्वगते च्चिय एते, णिज्जूढा जे पकप्पम्मि ॥ (निभा ६६७५)
मासिक उद्घात (मासलघु), मासिक अनुद्घात (मासगुरु), चतुर्मासिक उद्घात, चतुर्मासिक अनुद्घातपूर्वगतश्रुत में प्रायश्चित्त के ये ही चार प्रकार प्रतिपादित हैं, जिनका निशीथ में निर्यूहण किया गया है।
(स्था ५ / १४८ में मासिक उद्घातिक, मासिक अनुद्घातिक, चातुर्मासिक उद्घातिक, चातुर्मासिक अनुद्घातिक और आरोपणा - इन पांच विकल्पों को आचार प्रकल्प कहा गया है । इन्हीं विकल्पों के आधार पर निशीथ के बीस उद्देशकों का विभाजन किया गया है।
वस्तुतः प्रायश्चित्त के दो ही प्रकार हैं- मासिक और चातुर्मासिक । द्विमासिक, त्रिमासिक, पंचमासिक और षाण्मासिकये प्रायश्चित्त आरोपणा से बनते हैं। बीसवें उद्देशक का मुख्य विषय आरोपणा है। आरोपणा के अनेक प्रकार हैं । - द्र प्रायश्चित्त) १५. प्रायश्चित्त सूत्रों का परिमाण
अणुघातियमासाणं, दो चेव सता हवंति बावण्णा । तिणि सया बत्तीसा होंति य उग्घातियाणं पि ॥
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छेदसूत्र
पंचसता चुलसीता, सव्वेसिं मासियाण बोधव्वा... छच्चसता चोयाला चाउम्मासाण होतऽणुग्घाया। सत्त सया चवीसा चाउम्मासाण उग्धाता ॥ तेरससतअट्ठसट्टा, चाउम्मासाण होंति सव्वेसिं । नवयसता य सहस्सं, ठाणाणं पडिवत्तिओ । बावण्णा ठाणाई, सत्तरिं आरोवणा कसिणा ॥ (व्यभा ४०५-४०९ ) निशीथ के प्रथम उद्देशक में अभिहित अनुद्घातिक (गुरु) मासों को एकत्र करने पर दो सौ बावन (२५२) भेद होते हैं। द्वितीय यावत् पंचम उद्देशक में प्रतिपादित उद्घातिक (लघु) मास एकत्र करने पर उसके तीन सौ बत्तीस (३३२) भेद होते हैं। गुरु और लघु मासों को एकत्र मिलाने पर कुल प्रायश्चित्त मास पांच सौ चौरासी (५८४) स्थान होते हैं। निशीथ के छठे से ग्यारहवें उद्देशक तक गुरु-चातुर्मासिक प्रायश्चित्त अभिहित हैं। उनको मिलाने पर छह सौ चवालीस (६४४) होते स्थान हैं।
बारहवें से उन्नीसवें उद्देशक पर्यंत निरूपित लघु चतुर्मासों को मिलाने पर सात सौ चौबीस (७२४) होते हैं । लघु और गुरु चतुर्मास मिलाने पर १३६८ स्थान होते हैं । लघु-गुरु मासिक और लघु-गुरु चातुर्मासिक- सबको मिलाने पर १९५२ स्थान होते हैं। कृत्स्न आरोपणा के सत्तर स्थान हैं।
१६. निशीथवाचना के अयोग्य - योग्य
नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा खुड्डगस्स वा खुड्डियाए वा अवंजणजायस्स आयारपकप्पं नामं अज्झयणं उद्दिसित्तए ।
कप्पड़.........वंजणजायस्स आयारपकप्पं नामं अज्झणं उद्दिसित्तए ॥ (व्य १०/२३, २४) निर्ग्रथ अथवा निर्ग्रथी, क्षुल्लक अथवा क्षुल्लिका, जो अव्यंजनजात - उपस्थरोमराज से रहित हो, उसे आचारप्रकल्प अध्ययन नहीं पढ़ाया जा सकता, व्यंजनजात को पढ़ाया जा सकता है।
भिण्णरहस्से व नरे, निस्साकरए व मुक्कजोगी वा । छव्विहगतिगुविलम्मी, सो संसारे भ्रमइ दीहे ॥
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