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आगम विषय कोश-२
१०१
आलोचना
है।
गुरु के पास आता है। गुरु कहते हैं-आयुष्मन् ! तुम धन्य हैं। वे यदि यह जान जाते हैं कि आलोचक कहने पर भी हो, कृतपुण्य हो, जो आलोचना के लिए उपस्थित हुए हो। स्वीकार नहीं करेगा तो उसे आलोचनीय की स्मृति नहीं कराते। प्रतिसेवना दुष्कर नहीं है, दुष्कर है आलोचना। यह सुनकर यदि वे यह जान जाते हैं कि वह कहने पर स्वीकार कर लेगा वह ऋजुता से पूर्ण आलोचना करता है। आचार्य उसे डांटते तो उसे आलोचनीय की स्मृति करा देते हैं। हैं तो वह पूर्ण आलोचना नहीं कर पाता है।
० आगमव्यवहारी : आलोचना श्रवण के पश्चात् प्रायश्चित्त गौ दृष्टांत-गृहस्वामी जंगल से लौटने वाली प्रस्तुता गाय को आगमववहारी छव्विहो वि आलोयणं निसामेत्ता। मधुरता से नामोल्लेखपूर्वक बुलाता है, पीठ थपथपाता है और
देति ततो पच्छित्तं .................॥ उसके आगे चारा रख देता है तो वह सारे दूध का क्षरण करती अवराहं वियाणंति, तस्स सोधिं च जद्दपि। है। इसके विपरीत पीटना आदि व्यवहार करने पर वह सारे तधेवालोयणा वुत्ता, आलोएंते बहू गुणा।। दूध का क्षरण नहीं करती। यही बात आलोचना के संदर्भ में दव्वेहि पजवेहिं, कम-खेत्ते काल-भावपरिसुद्धं ।
आलोयणं सुणेत्ता, तो ववहारं पउंजंति॥ इसी प्रकार जिस आलोचक को आलोचना करने के
पडिसेवणातियारे, जदि नाउट्टति जहक्कम सव्वे। लिए प्रोत्साहन मिलता है, उसके कृत्य की सराहना होती है न हु देंती पच्छित्तं, आगमववहारिणो तस्स। तो वह ऋजुतापूर्वक आलोचना करता है और जिसको प्रारंभ
कधेहि सव्वं जो वुत्तो, जाणमाणो वि गृहति। से ही तिरस्कार मिलता है तो वह आलोचना-काल में माया न तस्स देंति पच्छित्तं, बेंति अन्नत्थ सोधय॥ का सहारा लेता है।
न संभरति जो दोसे, सब्भावा न य मायया। जो संकल्पकाल और आलोचनाकाल-दोनों में प्रति
पच्चक्खी साहते ते उ, माइणो उ न साधए। कंचन नहीं करता, समग्रता से आलोचना करता है, तत्त्वतः
जदि आगमो य आलोयणा य दो विविसमं निवडियाई। उसी के शोधि होती है।
न हु देंती पच्छित्तं, आगमववहारिणो तस्स। १०. आलोचनाह : आगमव्यवहारी एवं स्मारणाविधि
(व्यभा ४०५१, ४०५४,४०५५, ४०६५-४०६८)
केवलज्ञानी, मन:पर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी, चतुर्दशपूर्वी, आगमसुयववहारी, आगमतो छव्विहो उ ववहारी। केवलि मणोहि चोइस, दस णव पुव्वी य णायव्वा॥
दसपूर्वी और नौपूर्वी-ये षड्विध आगमव्यवहारी आलोचना पम्हुढे पडिसारण, अप्पडिवजंतगं ण खलु सारे।
सुनकर ही प्रायश्चित्त देते हैं।
यद्यपि आगमव्यवहारी आलोचक के अपराधों और जति पडिवज्जति सारे, दुविहऽतियारं वि पच्चक्खी॥
उनकी शोधि को जानते हैं, फिर भी उसे उनके सामने (निभा ६३९३, ६३९४)
आलोचना करनी चाहिए-यह अर्हत् का निर्देश है। आलोचना आलोचनाह के दो प्रकार हैं--आगमव्यवहारी और करने से अनेक गण निष्पन्न होते हैं। श्रुतव्यवहारी। आगमव्यवहारी के छह प्रकार हैं
आगमव्यवहारी आलोचक की द्रव्य, पर्याय, क्रम, क्षेत्र, १. केवलज्ञानी २. मनःपर्यवज्ञानी ३. अवधिज्ञानी काल और भाव से विशद्ध यथावस्थित आलोचना सुनते हैं, ४. चौदहपूर्वी ५. दसपूर्वी ६. नवपूर्वी तत्पश्चात् उसके प्रति शोधिव्यवहार का प्रयोग करते हैं।
आगमव्यवहारी प्रत्यक्षज्ञानी तथा अप्रत्यक्षज्ञानी–दोनों यदि प्रतिसेवक सब अतिचारों की यथाक्रम आलोचना प्रकार के होते हैं। आलोचना भी दो प्रकार की होती है- नहीं करता है तो आगमव्यवहारी उसे प्रायश्चित्त नहीं देते। मलगणविषयक अतिचारों की आलोचना तथा उत्तरगणविषयक किसी भी दोष को छिपाओ मत-ऐसा कहने पर जो आलोचक अतिचारों की आलोचना। आलोचक यदि आलोचनीय तथ्य को जानता हुआ भी दोष को छिपाता है तो उसे प्रायश्चित्त नहीं भल जाता है, तो आगमव्यवहारी उसे उसकी स्मृति करा देते देते, अन्यत्र जाकर शोधि करने की बात कहते हैं।
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