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उपधि
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आगम विषय कोश-२
में अनुज्ञात है। मात्रक का दूसरा परिभोग प्राणीदया के लिए लोहे आदि के पात्र), मणि-काच-कांस्य-पात्र, शंख-शृंगआर्यरक्षित द्वारा अनुज्ञात है।
पात्र, दंत-वस्त्र-प्रस्तर-पात्र, चर्म-पात्र-इनको तथा इस प्रकार ० जिनकल्पी के एक पात्र, स्थविर के मात्रक भी
के अन्य महामूल्यवान् पात्रों को अप्रासुक-अनेषणीय मानता दव्वे एगं पायं, भणिओ तरुणो य एगपाओ उ। हुआ मिलने पर ग्रहण न करे। अप्पोवही पसत्थो, चोएति न मत्ततो तम्हा॥ ० गृहिपात्र के प्रकार जिणकप्पे तं सुत्तं, सपडिग्गहकस्स तस्स तं एगं। ...गिहिमत्ते, तसथावरजीवदेहनिप्फण्णे।... नियमा थेराण पुणो, बितिज्जओ मत्तओ होइ॥ सव्वे वि लोहपादा, दंते सिंगे य पक्कभोमे य।
(बृभा ४०६१, ४०६२) एते तसनिप्फण्णा , दारुगतुंबाइया इतरे ॥ शिष्य ने कहा-एक पात्र रखना उपकरण द्रव्य ऊनोदरी
(निभा ४०४२, ४०४३) है तथा तरुण साधु को एक पात्र रखने का निर्देश दिया गया ___ गृहिपात्र के दो प्रकार हैंहै-'जे भिक्खू तरुणे एगं पायं धारेज्जा' (आचूला ६/२)। १. त्रसजीवों के शरीर से निष्पन्न, जैसे-हाथी दांत से निर्मित अल्पोपधि प्रशस्त है, इसलिए साधु को मात्रक ग्रहण नहीं
पात्र, महिष आदि के सींग से निर्मित (कपाल आदि)। करना चाहिए।
२. स्थावर जीवों के शरीर से निष्पन्न, जैसे-स्वर्ण, रजत आदि इसके उत्तर में गुरु ने कहा--जिनकल्प के विषय में
सब प्रकार के लोह पात्र, काष्ठ, अलाबु और मिट्टी के पात्र । वह सूत्र मान्य है कि जो सप्रतिग्रह जिनकल्पिक है, उसके
० गृहि-पात्र में खाने का निषेध लिए एक पात्र होता है। स्थविरकल्पिकों के नियमतः दुसरा मात्रक होता है। (एगं पायं जिणकप्पियाण थेराण मत्तओ
जे भिक्खू गिहिमत्ते भुंजति, भुजंतं वा सातिजति ।। बीओ-ओघनिर्यक्ति ६७९)।
""तं सेवमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं
उग्घातियं॥ ० वर्षाकाल में तीन मात्रक
(नि १२/११, ४३) वासावासं पज्जोसवियाणं कप्पड निग्गंथाण वा
जो भिक्षु गृहिपात्र में खाता है, खाने वाले का अनुमोदन निग्गंथीण वा तओ मत्तगाइं गिण्हित्तए, तं जहा-उच्चार- करता है, वह चतुर्लघु प्रायश्चित्त प्राप्त करता है। मत्तए पासवणमत्तए खेलमत्तए॥ (दशा ८ सू २८०) ३५. पात्र-प्राप्ति के स्थान
निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थी वर्षाकाल में तीन मात्रक रख कुत्तीय सिद्ध-निण्हग-पवंच-पडिमाउवासगाईसु। सकते हैं-उच्चारमात्रक, प्रस्रवणमात्रक और श्लेष्ममात्रक। कुत्तियवज्जं बितियं, आगरमाईसु वा दो वि॥ ३४. मूल्यवान् पात्रग्रहण-निषेध
आगर पल्लीमाई, निच्चुदग नदी कुडंगमुस्सरणं। ___ "अय-पायाणि वा, तउ-पायाणि वा, तंब-पायाणि वाहे तेणे भिक्खे, जंते परिभोगऽसंसत्तं ॥ वा, सीसग-पायाणि वा, हिरण्ण-पायाणि वा, सुवण्ण
(बृभा ४०३३, ४०३५) पायाणिवा, रीरिय-पायाणिवा, हारपड-पायाणिवा, मणि
कुत्रिकापण में यथाकृत पात्र की गवेषणा करे। काय-कंस-पायाणिवा, संख-सिंग-पायाणिवा, दंत-चेल
सिद्धपुत्र, निह्नव, प्रपञ्चश्रमण (वेशधारी) तथा ग्यारहवीं सेल-पायाणि वा, चम्म-पायाणि वा-अण्णयराई वा
प्रतिमा पूर्ण कर जो श्रमणोपासक घर चले गए हैं, उनके तहप्पगाराई विरूवरूवाइं महद्धणमुल्लाइं पायाई
पास यथाकृत और अल्पपरिकर्म पात्र की गवेषणा करे। अफासुयाई अणेसणिज्जाई ति मण्णमाणे लाभे संते नो
आकर (भीलों की पल्ली), नदी, वनखंड और व्याध पडिगाहेज्जा॥
___(आचूला ६/१३)
तथा चोरों की पल्ली में, भिक्षाचरों के पास तथा यंत्रशालाओं
तथ लोह-पात्र, रांगे के पात्र, ताम्र-पात्र, सीसे के पात्र, में अल्पपरिकर्म और सपरिकर्म दोनों प्रकार के पात्र प्राप्त होते रजत-पात्र, स्वर्ण-पात्र, पीतल के पात्र, हारपुट-पात्र (रत्नजटित हों तो कल्पनीय पात्रों को विधिपूर्वक ग्रहण करे। ये पात्र
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