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कर्म
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आगम विषय कोश-२
पया
* सादि-अनादि विस्त्रसाकरण, अजीवभावकरण
एक समय उत्कृष्टतः एक समय कम तीन पल्योपम। यह द्र श्रीआको १ करण, पुद्गल उत्कृष्ट काल मनुष्य की अपेक्षा से है। जिसकी जितनी आयुस्थिति (जीवों के तीन प्रकार के प्रयोग प्रजप्त हैं-मनप्रयोग है, उसका देशबंध उसमें एक समय कम होता है। वचनप्रयोग और कायप्रयोग। जीवों के कर्मों का उपचय प्रयोग जीव उत्पत्ति स्थान में प्रथम समय में शरीरयोग्य से होता है, स्वभाव से नहीं होता।
पुद्गलों को ग्रहण करता है-यह सर्वबंध है। दूसरे, तीसरे कर्म के अनादित्व-सादित्व के संदर्भ में चार भंग किये आदि समयों में पुद्गलों को ग्रहण भी करता है और छोड़ता गए हैं-१. सादि-सपर्यवसित-वीतराग के होने वाला। भी है-यह देशबंध है। इस प्रकार औदारिक आदि पांचों शरीरों ईर्यापथिक कर्म का बंध।
के बंध, बंधहेतु, काल, अंतरकाल आदि का विस्तार से निरूपण २. अनादि-सपर्यवसित-भवसिद्धिक के कर्मों का उपचय। किया गया है। द्र भ ८/३४५-३५४, ३६३-४४७ ३. अनादि-अपर्यवसित-अभवसिद्धिक के कर्मों का उपचय। शरीर की निष्पत्ति जीवमूलप्रयोगकरण और शरीर ४. सादि-अपर्यवसित-यह भंग शून्य है। कर्मबंध का अनादित्व की प्रवृत्ति उत्तरप्रयोगकरण है। शरीर का अवयवविभाग से निरपेक्ष है और सादित्व सापेक्ष है।-भ ६/२५-२९ रहित प्रथम निर्माण मूलकरण है। इसे पुद्गलसंघातकरण
बंध के दो प्रकार हैं-१. प्रयोगबंध-जीव के व्यापार कहा जा सकता है।.....-द्र श्रीआको १शरीर) से मन-वचन-काययोग की प्रवृत्ति से होने वाला बंध। ० भावबंध : जीवभावप्रयोगबंध . २. विस्रसाबंध-स्वाभाविक रूप से होने वाला पुद्गल आदि दुविहो य भावबंधो, जीवमजीवे य होइ बोधव्वो। विषयक संबंध। इसके दो प्रकार हैं
एक्केक्को वियतिविहो, विवाग-अविवाग-तदुभयगो॥ १. सादि विस्रसाबंध-परमाणु, द्विप्रदेशी, त्रिप्रदेशी आदि जीवभावप्पओगबंधो-मिथ्यादर्शनाऽविरतिप्रमाद पुद्गलस्कंधों का बंधनप्रत्ययिक बंध। बादल, अभ्रवृक्ष आदि कषायजोगबंधाः ।."जीवभावप्रयोगबंधो तिविधोका परिणामप्रत्ययिक बंध।
विपाकजो अविपाकजो उभयो। जीवभावविपाकजो२. अनादि विस्रसाबंध-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और जेण चेव भावेण गहिता तेण चेव वेदेति, एस विपाकजो। आकाशास्तिकाय का अपने-अपने प्रदेशों का अन्योन्य संबंध।। अविपाकजो अन्नधा वेदेति।अथवा तेसिं चेव पोग्गलाणं इन तीनों का परस्पर देशबंध होता है, सर्वबंध नहीं होता। उदओ वेदणा।सा दुविधा-विपाकजा अविपाकजा य। प्रयोगबंध के तीन प्रकार हैं
तेसिं पोग्गलाणं सति भावे भवति अभावेण भवति।अहवा १. अनादि अपर्यवसित-जीव के आठ मध्यप्रदेशों का, उनमें जे बद्धपुट्ठनिधत्ता, सो विपाकजो अविपाकजो वा। जो भी तीन-तीन का अनादि-अपर्यवसित, शेष का सादि बंध। पूण निकाचितो सो नियमा विपाकजो। २. सादि-अपर्यवसित-सिद्ध जीवों के प्रदेशों का बंध । जीव
(दशानि १४० चू) सिद्धिगति की अपेक्षा सादि अपर्यवसित है।
भावबंध दो प्रकार का होता है-जीवभावबंध और ३. सादि सपर्यवसित-शरीरबंध, शरीरप्रयोगबंध आदि। अजीवभावबंध । प्रत्येक के तीन-तीन प्रकार हैं-विपाकज. ० शरीरबंध-समुद्घात के समय जीव-व्यापार से होने वाला अविपाकज और तदुभयज। जीवप्रदेशों का बंध। अथवा जीवप्रदेशाश्रित तैजस-कार्मण जीवभावप्रयोगबंध-मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, शरीर का बंध।
कषाय और योग से होने वाला बंध। इसके तीन प्रकार हैं० शरीर प्रयोगबंध-एकेन्द्रिय आदि जीवों के औदारिक आदि । विपाकज, अविपाकज और उभयज। शरीरों का बंध। यह बंध शरीरप्रयोगनामकर्म के उदय से विपाकज-जिस भाव से पुद्गल गृहीत हैं, उसी भाव से होता है। औदारिक शरीर प्रयोगबंध देशबंध भी है, सर्वबंध वेदन करना। भी है। सर्वबंध का काल एक समय, देशबंध का जघन्यतः अविपाकज-अन्यथा वेदन करना । अथवा उन्हीं पुद्गलों का
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