________________
चक्रवर्ती
२०४
आगम विषय कोश-२
महत्तर आदि पांचों के अधीनस्थ देवकुल, सभाभवन २. पांडुक निधि-गणितशास्त्र तथा वनस्पतिशास्त्र । आदि में मुनियों को रहना होता तो यदि वे पांचों एक ही स्थान ३. पिंगल निधि-मंडनशास्त्र। पर प्राप्त हो जाते, तब उनकी आज्ञा ले ली जाती। यदि वे ४. सर्वरत्न निधि-लक्षणशास्त्र। एकत्र प्राप्त नहीं होते, तो ज्येष्ठमहत्तर की आज्ञा ली जाती। ५. महापद्म निधि-वस्त्र-उत्पत्तिशास्त्र। उसके अभाव में अनुमहत्तर के क्रम से आज्ञा ली जाती। यदि वे ६. काल निधि-कालविज्ञान, शिल्पविज्ञान और कर्मविज्ञान घर पर नहीं मिलते तो उनके प्राघूर्णक से आज्ञा ले ली जाती - का प्रतिपादक महाग्रन्थ। इस प्रकार उपाश्रय का विधिपूर्वक ग्रहण अनुज्ञात है।
७. महाकाल निधि-धातुवाद।
८. माणवक निधि-राजनीति व दण्डनीति शास्त्र। चक्रवर्ती-छह खंड वाले भरतक्षेत्र का अधिपति।
९. शंख निधि-नाट्यशास्त्र व वाद्यशास्त्र। ___ चक्रवर्त्तिप्रभृतिको महर्द्धिकः पृथ्वीपतिः षट्
-स्था ९/२२ का टि) खण्ड-भरतादेः क्षेत्रस्य प्रभुत्वमनुभवति। (बृभा ६६९ की वृ) * छह खंड
द्र लोक अजहन्नमणुक्कोसो "जो आरि-चक्कवट्टीणं।" * चक्रवर्ती क्षेत्र-काल-अवग्रह
द्र अवग्रह (बृभा ६७७) * चक्रवर्ती : कल्याण आहार
द्र ब्रह्मचर्य सब चक्रवर्तियों का एकरूप आधिपत्य (एकछत्र अखंड * चक्रवर्ती : चौदह रत्न" द्र श्रीआको १ चक्रवर्ती शासन) होता है, अत: उनसे सम्बन्धित अवग्रह (प्रभुत्वक्षेत्र) चरन्ती दिशा-प्रशस्त दिशा-तीर्थंकर, आचार्य आदि न जघन्य होता है, न उत्कृष्ट-अजघन्योत्कृष्ट होता है।
की विहरण दिशा। द्र आलोचना (शेष राजाओं का नगररोध आदि के समय नगर मात्र जघन्य ।
चारित्र-महाव्रत आदि का आचरण । सामायिक की अवग्रह भी रह जाता है।) ..."लोगच्छेरयभूया, जह चक्कीणं महाणिहयो॥
लोकाश्चर्यभूता: महानिधयः नैसर्पप्रभृतयः चक्रिणां १. चारित्र (संयम) का वर्गीकरण भरतादीनां प्रातिहार्याणि कुर्वन्ति। (बृभा ४२१८ वृ)
२. वृद्धि-हानि की अपेक्षा चारित्र के विकल्प
३. शैक्षभूमि : सामायिक चारित्र की कालमर्यादा ____ लोक में आश्चर्य उत्पन्न करने वाले नैसर्प, पांडुक
४. शैक्षभूमि की प्राचीन परम्परा आदि नौ महानिधि भरत आदि चक्रवर्तियों के शासन में
५. उपस्थापना : तीन आदेश प्रातिहार्य-यथाभिलषित वस्तुएं प्रस्तुत करते हैं।
६. देश-सर्व-उपस्थापना के विकल्प (चक्रवर्ती के अपने राज्य के लिए उपयोगी सभी
* चारित्र : स्थित-अस्थितकल्प द्र कल्पस्थिति वस्तुओं की प्राप्ति नौ निधियों से होती है, इसलिए इन्हें
* प्रव्राजना-उपस्थापना नव निधान के रूप में गिनाया जाता है। प्रचलित परम्परा के * उपस्थापना कल्पिक
_ _ द्र दीक्षा अनुसार ये निधियां देवकृत और देवाधिष्ठित मानी जाती हैं। * स्थविरकल्पी और चारित्र द्र स्थविरकल्प परन्तु वास्तव में ये सभी आकर ग्रन्थ हैं, जिनसे सभ्यता और * परिहारविशुद्धि चारित्र संस्कृति तथा राज्य-संचालन की अनेक विधियों का उद्भव * सामायिक..."संयमस्थान - द्र परिहारविशुद्धि हुआ है। इनमें तत्-तत् विषयों का सर्वांगीण ज्ञान भरा था,
* जिनकल्पी और चारित्र
द्र जिनकल्प इसलिए इन्हें निधि के रूप में माना गया। हम इन नौ निधियों
७. कषाय से चारित्र समाप्त को ज्ञान की विभिन्न शाखाओं में इस प्रकार बांट सकते हैं
८. मूल-उत्तरगुण भंग से चारित्र भंग १. नैसर्प निधि-वास्तुशास्त्र।
* मूलगुण-उत्तरगुण-संख्या
साधना।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org