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चिकित्सा
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आगम विषय कोश-२
पकाया जाता है, वह हंसतैल कहलाता है।
० विष के प्रकार (अगद अनेक प्रकार के होते हैं
दव्वविसं खलु दुविधं, सहजं संजोइमं च तं बहुहा।" १. महागद-जो विषवेग को नष्ट करने में अद्वितीय है। सहजं सिंगियमादी, संजोइम घतमहुं च समभागं।" २. अजित अगद ३. तार्क्ष्य अगद ४. संजीवन अगद ५. ऋषभ
(व्यभा ३०२८, ३०२९) अगद-यह जटामांसी, हरेणु, त्रिफला, इलायची, दालचीनी,
विष के दो प्रकार हैंसपारी. तुलसी के फूल आदि का बारीक चूर्ण करके सूअर, सहजविष-भंगिक आदि। गोह या नेवले के पित्त और मधु के साथ मिलाकर कुछ दिनों संयोगिम-समभाग में घृत और मधु का संयोग। तक गाय के सींग में रखा जाता है। जिस घर में यह अगद
प्रत्येक विष के अनेक प्रकार हैं। होता है, वहां सर्प आदि विष नहीं छोड़ते और इस अगद से लिप्त नगाड़े बजाने पर उसकी ध्वनि से विष निष्प्रभावी हो
० वंजुल वृक्ष से विषअपनयन
सीतघरं पिव दाहं, वंजुलरुक्खो व जह उ उरगविसं। जाता है। इस अगद से लिप्त पताका को देखकर विष से पीड़ित मनुष्य स्वस्थ हो जाता है।
कुद्धस्स तथा कोहं, पविणेती उसवमेति त्ति॥
(व्यभा ४१५२) हल्दी, गृहधूम, तगर, कूठ, ढाक के बीज आदि से बना अगद गलगोलिका के विष को नष्ट करता है।
शीतगृह (जलयंत्रगृह) दाह का और वंजुल वृक्ष सर्प-सु कल्पस्थान ५/६३-७५ ; ८/४८
विष का अपनयन करता है। गुरु क्रोधी-शिष्य के क्रोध-विष ० शतपाक तैल
का अपनयन-उपशमन करते हैं। १. सौ औषधिक्वाथ के द्वारा पकाया हुआ।
(वंजुल वृक्ष-जलवेतस साधारण ऊंचा और सुन्दर २. सौ औषधियों के साथ पकाया गया।
होता है। इसकी छाल कृष्णाभ, तंतुमय, कषाय तथा कुछ ३. सौ बार पकाया गया।
सुगंधित होती है। पत्ते तीन से छह इंच लम्बे, पत्रोदर हरा, ४. सौ रुपयों के मूल्य से पकाया गया।
पत्रपृष्ठ सफेद, पत्रवृन्त लाल, पुष्प सफेदी लिए पीले और ० सहस्रपाक तैल
मंजरियां सुगंधित होती हैं। इसके फल लगभग पांच इंच १. सहस्र औषधिक्वाथ के द्वारा पकाया हुआ।
लम्बे होते हैं। इसकी छाल एवं पत्तों का चिकित्सा में उपयोग २. सहस्र औषधियों के साथ पकाया गया।
किया जाता है। भावप्रकाशनिघण्टु, गुडूच्यादिवर्ग) ३. सहस्र बार पकाया गया।
० स्वर्ण विषघाती ४. सहस्र रुपयों के मूल्य से पकाया गया।
विसघाई खलुकणगं, .जोणीपाहुडे॥ -स्था ३/८७ का टि)
(व्यभा २३९२) २५. विष की औषध विष
स्वर्ण विषघाती होता है। स्वर्ण निर्माण की विधि विसस्स विसमेवेह, ओसधं अग्गिमग्गिणो। योनिप्राभृत में प्रतिपादित है। मंतस्स पडिमंतो उ, दुजणस्स विवज्जणा॥ (विषनाशक, रसायन, मांगलिक, लचीला, दक्षिणा
(व्यभा ११५९) वर्त, गुरुक, न जलने वाला और कुथित न होने वाला स्वर्ण विष की औषध विष ही है। अग्नि की औषध अग्नि, असली स्वर्ण है। वह कष, छेद, ताप और ताडन-इन चार मंत्र की औषध प्रतिमंत्र और दुर्जन की औषध विवर्जना है कारणों से परिशुद्ध होता है।-दनि ३२६, ३२७) (उस गांव या नगर के परित्याग से वह दुर्जन परित्यक्त हो . गोमय (गोबर) विषघाती जाता है)।
...."गोमयंकायंसि वणं आलिंपेज्ज""॥
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