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चिकित्सा
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आगम विषय कोश-२
वाव
० ब्राह्मी आदि का सेवन : वाक्पाटव, मेधा....
एवं विसत्तगं।ततो एतेण कमेण महुरोल्लणं अंबकुसणेण ब्राह्मयाद्यौषधोपयोगतो वाक्पाटवं, शरीरजाड्या- भिंदति।
___ (निभा ३००५-३००७ चू) पहायौषधाभ्यवहारतः शरीरलघुता, दुग्धप्रणीताहारा
रोग उत्पन्न होने पर तेले (तीन दिन का उपवास) ऽभ्यवहारतो मेधाविशिष्टं च धारणाबलं, सर्पि:- सन्मिश्र- आदि के तप तथा उष्णोदक-पान की क्रमशः वृद्धि से उपचार भोजनभुक्तित ऊर्जा, घृतेन पाटवम्। (व्यभा ७५७ की वृ) किया जाता है।
टव-ब्राह्मी आदि औषधियों के सेवन से वाणी की विशेष रूप से अजीर्ण, ज्वर आदि रोगों के असाध्य पटुता, बुद्धि का विकास।
हो जाने पर रोगी तब तक उपवास करता है, जब तक वह • शरीरलाघव-शारीरिक जड़तानाशक औषधियों के सेवन से रोग से मुक्त नहीं होता। जो सहिष्णु/समर्थ है, वह रोगमुक्त शरीर का हल्कापन।
होने के पश्चात् भी उपवास करता है। ० मेधा-धारणाबल-दुग्धपान और प्रणीत आहार से मेधाविशिष्ट जो रोगी असमर्थ है, वह दो दिन का उपवास या धारणा शक्ति का विकास।
तीन दिन का उपवास करता है। अथवा रोग को जानकर ० ऊर्जा-घी-संमिश्रित भोजन से ऊर्जा की वृद्धि। उसके अनुकूल पथ्य सेवन करता है। यथा-वायुरोग में घृत ० पाटव-घृतसेवन से दक्षता का संवर्द्धन।
आदि का पान, अवभेदक रोग में घृतपूर का भक्षण।
(अर्धावभेदक, सूर्यावर्त्त, अनन्तवात आदि रोगों में २९. उपवास से रोगचिकित्सा तथा पारणविधि किह उप्पण्ण गिलाणो, अट्ठमउण्होदगातिया वुड्डी।
वात-पित्तनाशक आहार दिया जाता है। यथा-घृत, क्षीरान्न, किंचि बहुभागमद्धे, ओमे जुत्तं परिहरंतो॥
संयाव (लपसी), घृतपूर आदि।-सु उत्तरतंत्र अ २६)
रोगी के पारण-विधि का क्रम इस प्रकार हैजावण मुक्को तावऽणसणं तुअसहुस्स अट्ठ छटुं वा।
० प्रथम सप्ताह-सात दिन उष्णोदक में चावल के सिक्थ मुक्के वि अभत्तट्ठो, णाऊण रुयं तु जं जोग्गं॥
डालकर उन्हें किंचित् मलकर पारण करता है। एवं पि कीरमाणे, वेज पुच्छंतऽठायमाणे वा
० द्वितीय सप्ताह-फिर सात दिन उष्णोदक में अल्पमात्रा में विसेसेण रोगस्स जं पत्थं तं कीरेति, जहा वायुस्स
मधुर उल्वण (तक्र से आर्द्र ओदन) डालकर उस उदक से घतादिपाणं, अवभेयगे वा घयपूरभक्खणं असहू रोगेण पारण करता है। अमुक्को जता पारेति तदा इमो कमो
(तक्कोल्लणं-तक्राख्यम्, 'उल्लणं' येनौदनउसिणोदए कूरसित्था णिच्छुब्भिउं ईसिं मलेउं मार्टीकृत्योपयुज्यते।-पिनि ६२४ वृ पारेति, एवं सत्तदिणे उसिणोदगे महुरोल्लणं थोवं
'देशीशब्दकोश' में 'ओल्लणी' शब्द का अर्थ किया छ्ब्भति तेण उदगेण पारेति, एएण वि सत्तदिणे ततिय- गया है-मार्जिता, इलायची, दालचीनी आदि से संस्कत दधि।) सत्तगे किंचि मत्तातो बहुयरं महुरोल्लणं उसिणोदगे ० तृतीय सप्ताह-तीसरे सप्तक में कुछ अधिक मात्रा में मधुर छुब्भति, एतेण वि सत्तगं।
उल्वण उष्णोदक में डालता है। 'भागे' त्ति तिभागो मधुरोल्लणस्स दो भागा . चतुर्थ सप्ताह-तीन भाग मधुर उल्वण, दो भाग उष्णोदक। उसिणोदगे, एतेण वि सत्तगं।
० पंचम सप्ताह-आधा भाग मधुर उल्वण, आधा भाग 'अद्धं' त्ति अद्धं महुरोल्लणस्स अद्धं उसिणो- उष्णोदक। दगस्स, एतेण वि सत्तगं। ततो परं तिभागो उसिणो- ० षष्ठ सप्ताह-तीन भाग उष्णोदक, दो भाग उल्वण। दगस्स महुरोल्लणस्स दो भागा, एवं पि सत्तगं। ततो ऊणो ० सप्तम सप्ताह-सातवें सप्तक में न्यून त्रिभाग उष्णोदक, तिभागो उसिणोदगस्स समहिगा दो भागा महुरोल्लणस्स, समधिक दो भाग मधुर उल्वण। एवं पिसत्तगं। ततो किंचिमत्तं उसिणोदगं सेसं महुरोल्लणं, ० अष्टम सप्ताह-किंचित् मात्र उष्णोदक, शेष मधुर उल्वण।
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