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आगम विषय कोश-२
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चिकित्सा
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तत्पश्चात् इस क्रम से आम्ल करम्बे के साथ मधुर अवसर को जानने वाला। उल्वण और अन्य यूषों का प्रयोग करता है। इतना प्रयोग करने देशज्ञ-वैद्य के अवकाश के क्षणों को अथवा उसके उपवेशनपर भी रोग उपशांत न हो तो वैद्य से परामर्श करता है। स्थान को जानने वाला।
(मोयप्रतिमा पालन करने के पश्चात् आहार-ग्रहण ० अनुमत-जो ग्लान अथवा वैद्य द्वारा मान्य है। वह वैद्य के की विधि का उल्लिखित विधि से प्रायः साम्य है। उसमें पास जाकर पूछताछ करे, किन्तु उस समय यदि वैद्य एक प्रथम सप्ताह में गर्म पानी के साथ चावल, दूसरे सप्ताह में शाटक हो, तैल आदि से म्रक्षण या कल्क आदि से लिप्त यूषमांड यावत् आठवें सप्ताह में मधुर दही अथवा यूषों के हो, मुंडन करा रहा हो, राख, कचवरपुंज आदि के समीप साथ चावल।-द्र प्रतिमा
स्थित हो, काष्ठ आदि का छेदन कर रहा हो अथवा किसी दही कषाय, अनुरस, स्निग्ध, प्राणकारक और पवित्र के दूषित अंग या शिरा का छेदन-भेदन कर रहा हो-इन होता है। यह विषम ज्वर, अतिसार, अरुचि, मूत्रकृच्छ्र और अप्रशस्त योगों में उससे कुछ न पूछे। यदि रोगी के छेदनकृशता को दूर करता है। चावल मधुर, शीतवीर्य, लघुपाकी, भेदन कराना हो तो पूछा जा सकता है। ज्वरहर, बलकारक तथा पित्तनाशक होते हैं।
वह सुखासन में आसीन हो, प्रसन्न मुद्रा में वैद्यक-सु सूत्रस्थान ४५/६५; ४६/५-७) शास्त्र पढ़ रहा हो अथवा किसी की चिकित्सा कर रहा हो. ३०. वैद्य के पास जाने की विधि एवं योग्यता उस समय उससे पूछने पर वह रोगी की अवस्था को सुनकर एक्कग दुगं चउक्कं, दंडो दूया तहेव नीहारी।.... उपाय बता देता है या स्वयं रोगी के पास आ जाता है।
(बृभा १९२१) (जो रोगी के निमित्त चिकित्सक को बुलाने जाता है प्राचीन परंपरा के अनुसार वैद्य के पास एक, दो या वह दूत कहलाता है। जो दूत निन्दा करते हुए, गधे या ऊंट चार मुनि नहीं जाते थे। क्योंकि एक मनि जाने से वैद्य उसे ।
है। किसानोमा पो की सवारी पर चढकर या एक-दसरे के पीछे पंक्ति बनाकर यमदण्ड की दृष्टि से देखता है, दो मुनियों को यमदूत मानता ।
वैद्य के समीप आते हैं, वे अप्रशस्त हैं। रूक्ष, निष्ठुर एवं है। चार मुनियों के साथ जाने से वह कहता है-शव को कंधा अमंगल वचन बोलते हुए दूत अप्रशस्त हैं। देने वाले आए हैं। अत: तीन मुनि जाते थे।
जो वैद्य दक्षिण दिशा में मुख किए हुए, अपवित्र
स्थान में, जलती अग्नि के समीप बैठे हुए, नग्नावस्था में उग्गहधारणकुसले, दक्खे परिणामए य पियधम्मे। कालण्णू देसण्णू तस्साणुमए य पेसेज्जा।
भूमि पर शयन करते हुए, अपवित्र, विमुक्त केश की अवस्था
में तैल अभ्यंग करते हुए मिले, वह अप्रशस्त है। साडऽब्भंगण उव्वलण, लोयछारुक्कुरडेय छिंद-भिंदंते। सुह आसण रोगविही, उवदेसो वा वि आगमणं॥
कृत्तिका, आर्द्रा, मघा आदि नक्षत्र, चतुर्थी, नवमी आदि (निभा ३०१६, ३०२२)
तिथियां और संध्याकाल दूतगमन के लिए वर्जनीय है।
सफेद वस्त्र धारण किए हुए, प्रसन्नचित्त, पैदल चलकर आचार्य रोगी के बारे में पूछने के लिए वैद्य के पास
आए हुए, स्मृतियुक्त, विधि और काल के ज्ञाता, मंगलकारी दूत जिसको भेजे, वह निम्न गुणों से युक्त हो
कार्य को सफल करने वाले होते हैं।-सु सूत्रस्थान अ २९) ० अवग्रहण-धारण कुशल-वैद्य के कथन को ग्रहण और धारण करने में समर्थ।
० वैद्य को रोगी की अवगति ० दक्ष-कार्य को शीघ्र संपादित करने वाला।
वाहि नियाण विकारं, देसं कालं वयं च धातुं च। ० परिणामक-उत्सर्ग-अपवाद को जानने वाला।
आहार अग्गि-धिइबल, समुइं च कहिंति जा जस्स॥ • प्रियधर्मा-श्रुत--चारित्रधर्म में श्रद्धावान्।
(बृभा १९२७) ० कालज्ञ-चिकित्सक के पास जाने के समय को अथवा परिचारक वैद्य के पास जाकर रोग और रोगी की पूर्ण
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