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चारित्र
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आगम विषय कोश-२
संबंधी, चित्तसंबंधी और प्रज्ञासंबंधी शिक्षा ग्रहण करता है, प्रथम और चरम तीर्थंकर के शासन में पंचयाम धर्म के इसलिए वह शैक्ष कहलाता है। -अंनि भाग १ पृ २३८) जिन अपराधपदों में जिन साधुओं की उपस्थापना होती है, ४. शैक्षभूमि की प्राचीन परम्परा
उनके प्रसंग में तीन आदेश हैंपुव्वोवद्वपुराणे, करणजयट्ठा जहणिया भूमी। १. दसविध-तीन प्रकार के पारांचिक-१. दुष्ट, २. प्रमत्त उक्कोसा दम्मेहं, पड्च्च अस्सहहाणं च॥ और ३. अन्योन्यक्रियाकारी। तीन प्रकार के अनवस्थाप्यएमेव य मज्झमिया, अणहिज्जते असहहंते य। ४. साधर्मिकस्तेन, ५. अन्यधार्मिकस्तेन, ६. मारक प्रहार भावियमेहाविस्स वि, करणजयट्ठाय मज्झमिया॥ करने वाला तथा ७. सर्वदर्शनभ्रष्ट, ८. सर्वचारित्रभ्रष्ट, ९.
(व्यभा ४६०५, ४६०६) आकुट्टि या दर्प से सम्पूर्ण संयमव्यापार का परित्याग कर छह १. जघन्य शैक्षभूमि-कोई मुनि उत्प्रव्रजित होकर पुनः प्रव्रजित
जीवनिकाय का समारंभ करने वाला और १०. शैक्ष (अभिनव होता है, वह पूर्व विस्मृत सामाचारी की स्मृति और इन्द्रियजय
दीक्षित)-इनको उपस्थापित किया जाता है। का अभ्यास एक सप्ताह में कर लेता है, अतः उसे सातवें
२. षड्विध-१. पारांचित, २. अनवस्थाप्य, ३. सम्पूर्ण दर्शनभ्रष्ट, दिन उपस्थापित कर देना चाहिए। यह जघन्य भूमि है।
४. सर्वचारित्रभ्रष्ट, ५. संयम त्यागकर जीवकाय की हिंसा २. उत्कृष्ट शैक्षभूमि-कोई व्यक्ति प्रथम बार प्रव्रजित होता।
व करने वाला और शैक्ष-इनकी उपस्थापना होती है। है, वह बुद्धि और श्रद्धा-दोनों से मंद है. उसे सामाचारी और ३. चतुर्विध-१. दर्शनभ्रष्ट, २. चारित्रभ्रष्ट, ३. षटकायइन्द्रियविजय का अभ्यास छह मास तक कराना चाहिए। विराधक और ४. शैक्ष को उपस्थापनायोम्ब कहा गया है। ३. मध्यम शैक्षमुनि-इसी प्रकार मंद बुद्धि और श्रद्धा वाले को ६. देश-सर्व-उपस्थापना के विकल्प सामाचारी व इन्द्रियजय का अभ्यास चार मास तक कराना
केवलगहणा कसिणं, जति वमती दंसणं चरित्तं वा। चाहिए। अथवा कोई भावनाशील, श्रद्धासम्पन्न मेधावी व्यक्ति तो तस्स उवट्ठवणा, देसे वंतम्मि भयणा तु॥ प्रव्रजित हो तो उसे भी सामाचारी व इन्द्रियविजय का अभ्यास
एमेव य किंचि पदं, सुयं व असुयं व अप्पदोसेणं। चार मास तक कराना चाहिए। यह शैक्ष की मध्यम भूमि है।
अविकोवितो कहितो, चोदिय आउट्ट सुद्धो तु॥ ५. उपस्थापना : तीन आदेश
अणाभोएण मिच्छत्तं, सम्मत्तं पुणरागते। सा जेसि उवट्ठवणा, जेहि य ठाणेहिँ पुरिम-चरिमाणं।
तमेव तस्स पच्छित्तं, जं मग्गं पडिवज्जई। पंचाया धम्मे, आदेसतिगं च मे सुणसु॥
आभोगेण मिच्छत्तं, सम्मत्तं पुणरागते ।
जिण-थेराण आणाए, मूलच्छेज्जं तु कारए॥ तओ पारंचिया वुत्ता, अणवटा य तिण्णि उ। दंसणम्मि य वंतम्मि, चरित्तम्मि य केवले॥
छण्हं जीवनिकायाणं, अणप्पज्झो तु विराहओ। अदुवा चियत्तकिच्चे, जीवकाए समारभे।
आलोइय-पडिक्कतो, सुद्धो हवति संजओ॥ सेहे दसमे वुत्ते, जस्स उवट्ठावणा भणिया॥
छण्हं जीवनिकायाणं, अप्पज्झो उ विराहतो। जे य पारंचिया कुत्ता, अणवठ्ठप्पा य जे विदू।
आलोइय-पडिक्कतो, मूलच्छेज्जं तु कारए॥ दंसणम्मि य वंतम्मि, चरित्तम्मि य केवले॥
(बृभा ६४१५-६४२०) अदुवा चियत्तकिच्चे, जीवकाए समारभे। जो सम्पूर्णरूप से दर्शन और चारित्र से च्युत हो गया है, सेहे छटे वुत्ते, जस्स उवट्ठावणा भणिया॥ उसको छेदोपस्थापनीय चारित्र दिया जाता है। दसणम्मि य वंतम्मि, चरित्तम्मि य केवले। दर्शन-चारित्र के देशभंग में उपस्थापना की भजना हैचियत्तकिच्चे सेहे य, उवद्रप्पा य आहिया। कोई अभिनिवेश से मुक्त अगीतार्थ दूसरों के सामने
(बुभा ६४०९-६४१४) जीव आदि से संबंधित या सूत्र से संबंधित श्रुत-अश्रुत-पदों
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