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आगम विषय कोश - २
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घेण्यंतु ओसधाई, वणपट्टा मक्खणाणि विविहाणि । सो बेतऽमंगलाई, मा कुणह अणागतं चेव ॥ किं घेत्तव्वं रणे, जोग्गं पुच्छिता इतरेण ते । भणंति वणतिल्लाई, घतदव्वोसहाणि य॥ भग्गसिव्वित संसित्ता, वणा वेज्जेहि जस्स उ । सो पारगो उ संगामे, पडिवक्खो विवज्जते ॥ (व्यभा २४०३-२४०६ )
दो राजाओं में युद्ध छिड़ गया। एक राजा के पास कुछ वैद्य उपस्थित हुए और साथ में रहने की प्रार्थना की। राजा ने कहा- तुम युद्धविद्या में कुशल नहीं हो। वे वैद्य बोले- राजन् ! यद्यपि हम युद्धविद्या में कुशल नहीं हैं फिर भी में युद्ध घायल हुए सैनिकों के लिए हमारी वैद्यक्रिया अत्यन्त उपयोगी है। आप अनेक प्रकार की औषधियां, व्रणपट्ट तथा विविध तैल और लेप साथ में ले लें। यह कहने पर राजा ने कहाआप अनागत अमंगल की भावना न करें।
दूसरे राजा के पास भी वैद्य गए। राजा ने उन्हें पूछासंग्राम के लिए क्या-क्या उपयोगी द्रव्य आवश्यक होंगे ? यह पूछने पर वैद्यों ने कहा- 'व्रण-संरोहण तैल, अत्यन्त पुराना घी तथा औषधियां मंगाएं। उनमें तैल और घी को पकाया जा सकेगा। व्रण संरोहण चूर्ण तथा व्रणलेप वाली औषधियां साथ में लें ।' राजा ने अपने सेवकों से सारी सामग्री एकत्रित करने के लिए कहा।
दोनों राजाओं में युद्ध छिड़ा। जिस राजा के साथ वैद्य थे, उन वैद्यों ने मुद्गर आदि से आहत भटों को औषधियों से स्वस्थ कर दिया तथा जो भट घायल हुए थे, उनके व्रणों को सीकर औषधियों का लेप कर दिया। इस प्रकार व्रणित और प्रहारित सभी योद्धा दूसरे दिन युद्ध के लिए तैयार हो गए। वैद्यों ने दूसरे और तीसरे दिन भी उपचार किया। वह राजा वैद्यों के परामर्श से अपने भटों को स्वस्थ करता हुआ युद्ध में विजयी बना। दूसरा राजा पराजित हो गया।
(घृत मधुर रस, सौम्य, मृदु, शीतवीर्य, अल्प अभिष्यन्दि होता है, गुदावर्त, उन्माद, अपस्मार, शूल, ज्वर, आनाह और वात-पित्त को शांत करता है। यह अग्निदीपक, स्मृति, मति, मेधा, कांति, स्वर, ओज, तेज, बल को बढ़ाता है, आयुवर्धक और पवित्र होता है ।
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चिकित्सा
दस वर्ष का पुराना घृत विरेचक, कटु-विपाकी, त्रिदोषनाशक, मूर्च्छा, मद, उन्माद, ज्वर, गर, योनिशूल, कर्णशूल, नेत्रशूल और शिरशूल को नष्ट करता है, नस्य : में हितकारी है।
१११ वर्ष पुराना घृत राक्षस, प्रेत, बाघ आदि के भय को दूर करता है। यह वायु-कफनाशक, बलकारक, मेधावर्धक और नेत्ररोगनाशक है। इस पुराने घी को कुंभसर्पि और महाघृत भी कहा जाता है । सुसूत्रस्थान ४५ / ९६-११०) ११. पादतल पर लेप
वेजोवदेसेण पायतलरोगिणो मगदंतियातिलेवेण अण्णेण वा रंगो कायव्वो । (निभा १४९९ की चू)
वैद्य के निर्देशानुसार पादतलरोगी अपने पैर पर मगदंतिका आदि से लेप करता है अथवा अन्य रंग से रंगता है। १२. अतिवमन विरेचन से वल्गुली- कोढ
सो अमच्चो दिणे दिणे जेमणवेलाए जिमितो वा तं संभरिता उड्डुं करेति । एवं तस्स वग्गुली वाही जातो, विट्ठो य । (निभा २९३७ की चू)
एक अमात्य पूर्वदृष्ट वमन की घटना को याद कर कभी भोजनवेला में तथा कभी भोजन करने के पश्चात् वमन करता। इससे उसे वल्गुलि व्याधि उत्पन्न हुई और वह दिवंगत हो गया।
अतीव वमणे मरेज्ज, अतिविरेयणे वा मरेज्ज । अह उभयं धरेति तो उड्डनिरोहे कोढो, वच्चनिरोहे मरणं । (निभा ४३३२ की चू)
अति वमन और अति विरेचन से मृत्यु होती है । वमन -निरोध से कोढ और मल-निरोध से मृत्यु होती है । १३. नाक का अर्श होने का एक कारण रुधिरगन्धेन
नासार्शांस्युपजायन्ते । (व्यभा १०१७ की वृ)
रुधिर की दुर्गंध से नाक में अर्श हो सकता है।
१४. कटिरोग का एक कारण
भारेण वेयणाए हिंडते उच्चनीयसासो वा । बाहुकडिवायगहणं,
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(व्यभा २५७४)
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