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आगम विषय कोश- २
ओष्ठ के आठ, दंतमूल के पन्द्रह, दांत के आठ, जिह्वा के पांच, तालु के नौ, कंठ के सतरह, सर्व आयतनों के तीन । ० अग्नि- ग्रासिनी, भस्मकव्याधि, जो वात-पित्त की उत्कटता तथा श्लेष्म की न्यूनता से होती है ।
० मधुमेह - यह वस्तिरोग है। इसमें मधुतुल्य प्रस्रवण होता है। ० प्रमेह - इसके बीस भेद होते हैं-कफ प्रकोप से दस, पित्त - प्रकोप से छह, वात प्रकोप से चार- ये बीसों भेद असाध्य अवस्था में मधुमेह के रूप में परिणत हो जाते हैं । - आ ६/८ की वृ) ४. चर्मरोग (कुष्ठ) के प्रकार और बचने के उपाय संदतमसंदतं, अस्संदण चित्त मंडलपसुत्ती । किमिपूयं लसिगा वा, पस्संदति तत्थिमा जतणा ॥ ........पासवण - फास-लाला, पस्से ॥ पासवण अन्नअसती, भूतीए लक्खि मा हु दूसियं मोयं । चरणतलेसु कमेज्जा, एमेव य निक्खमपवेसो ॥
ती व सो काउली कमेसुं, संथारओ दूर अदंसणे वि । मा फासदोसेण कमेज्ज तेसिं, तत्थेक्कवत्थादि व परिहरति ॥ नय भुंजंतेगट्ठा, लालादोसेण संकमति वाही । सेओ से वज्जिज्जति, जल्लपडलंतरकप्पो य ॥ एतेहि कमति वाही, एत्थं खलु सेउएण दिट्टंतो । कुट्ठक्खय कच्छुयऽसिवं, नयणामयकामलादीया ॥ अगलंत न वक्खारो, लालासेयादिवज्जण तथेव । उस्सास -भास-सयणासणादीहि होति संकंती ॥
... सीते व दाउ कप्पं, उवरिमधोतं परिहरंति ॥ (व्यभा २७८३, २७८८-२७९२, २७९५, २७९६ ) त्वग्दोष (कुष्ठ) के दो प्रकार हैं
१. स्यन्दमान - वह चर्मरोग, जिसमें शरीर से कृमि, कच्चा मवाद, मवाद (रसी) आदि झरते हैं।
२. अस्यन्दमान - यह अस्रावी चर्मरोग है। इसके दो रूप हैंचित्रप्रसुप्ति-शरीर पर श्वेत, काले आदि विचित्र धब्बे हो जाते हैं।
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० मण्डलप्रसुप्ति-- कोढ विशेष, जिसमें गोल चकत्ते हो जाते हैं। चर्मरोगी के प्रस्रवण, स्वेद और शरीर के स्पर्श से, उसके साथ एक पात्र में भोजन करने पर उसकी लार उसके द्वारा परिभुक्त पीठ फलक वस्त्र आदि का परिभोग
तथा
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चिकित्सा
करने से चर्मरोग के कीटाणु नीरोग व्यक्ति में संक्रान्त हो जाते हैं।
संक्रान्ति से बचने के उपाय- स्यन्दमान चर्मरोगी की प्रस्रवणभूमि और निष्क्रमण - प्रवेश स्थान पृथक् होना चाहिए। यदि पृथक् भूमि संभव न हो तो उस एक ही भूमि में रोगी के योग्य स्थान को राख आदि से रेखांकित कर देना चाहिए, जिससे कि अन्य व्यक्तियों के द्वारा उस स्थान का परिहार किया जा सके। रोगी के दूषित प्रस्रवण पर स्वस्थ पैर रखने से पैरों में व्याधि संक्रांत हो सकती है । स्यन्दमान रोगी को पैरों में उपानद् पहनकर निर्गमन प्रवेश करना चाहिए। अस्यन्दमान रोगी की प्रस्रवणभूमि पृथक् होनी चाहिए, प्रवेशनिर्गम स्थान एक हो सकता है।
चर्मरोगी का संस्तारक भी कुछ दूरी पर करना चाहिए, जिससे स्पर्शदोष के कारण व्याधि संक्रात न हो। रोगी द्वारा स्पृष्ट वस्त्र का भी उपयोग नहीं करना चाहिए ।
व्याधिसंक्रमण से बचने के लिए रोगी के साथ एक पात्र में भोजन नहीं करना चाहिए। उसके स्वेद - प्रस्वेद, जल्ल (शरीर मैल) तथा पात्रपटल और अन्तर्वस्त्र का भी परिहार करना चाहिए। अन्यथा व्याधि संक्रान्त हो जाती है, जैसे सेटुक के परिवार में हुई थी।
(सेटुक ब्राह्मण लोलुपतावश पुनः पुनः वमन कर भोजन करता, अतः उसे कुष्ठ रोग हो गया । परिवार ने उसका अपमान किया । प्रतिशोध की भावना से वह एक बकरा लाया। उसने तृणों को कुष्ठरस से क्लिन्न कर बकरे को खिलाया। फिर बकरे का मांस पुत्रों आदि को खिलाया । वे सब कुष्ठ रोग से ग्रस्त हो गए। सेटुक रात्रि में घर से निकल गया । वह जंगलों में औषधिमूल के धावन जल को पीने से स्वस्थ हो गया । - उप्रा प ११, १२ )
कुष्ठ, क्षय, खुजली, चेचक, नेत्ररोग, कामल आदि संक्रामक बीमारियां हैं।
अस्यन्दमान त्वचारोगी को अलग कक्ष में नहीं रखना चाहिए किन्तु उसके लार, स्वेद, उच्छ्वास, भाषा, शयन आदि का वर्जन करना चाहिए ( उनसे दूर रहना चाहिए ) शीतसुरक्षा आदि के लिए रोगी दूसरों के वस्त्र ओढे तो उन्हें धोकर ही पुनः काम में लेना चाहिए।
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