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आगम विषय कोश-२
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चिकित्सा
६. भूतविद्या-भूत आदि के निग्रह के लिए विद्यातंत्र । देव, वटी, अवलेह आदि अनेकविध कल्पना की योग्यता होना। असुर, गंधर्व, यक्ष, राक्षस, पितर, पिशाच, नाग आदि से औषधियों का अपने रस, गुण, वीर्य आदि से युक्त होना। आविष्ट चित्त वाले व्यक्तियों के उपद्रव को मिटाने के लिए ३. परिचारक के गुण-सेवा-परिचर्या का पूर्णज्ञान। चातुर्य । शांतिकर्म, बलिकर्म आदि का विधान तथा ग्रहों की शांति का रोगी के प्रति अनुराग। पवित्रता। निर्देश करने वाला शास्त्र।
४. रोगी के गुण-स्मरणशक्ति। वैद्य के निर्देश-पालन की ७. क्षारतंत्र-वीर्यपुष्टि के उपाय बताने वाला शास्त्र। सुश्रुत प्रवृत्ति। निर्भयता। रोग के विषय में अपनी स्थिति का पूर्णरूप आदि ग्रंथों में इसे वाजीकरणतंत्र कहा जाता है।
से प्रज्ञापन करने की क्षमता।-च सूत्रस्थान ९/३-९) ८. रसायन-इसका शाब्दिक अर्थ है-अमृततुल्य रस की ३. रोग और व्याधि के प्रकार प्राप्ति । वय को स्थायित्व देने, आयुष्य को बढ़ाने, बुद्धि को गंडी-कोढ-खयाई, रोगो कासाइगो उ आयंको। वृद्धिंगत करने तथा रोगों का अपहरण करने में समर्थ रसायनों
दीहरुया वा रोगो, आतंको आसुघाती उ॥ का प्रतिपादन करने वाला शास्त्र।-स्था ८/२६ का टि
गण्डी-गण्डमालादिकः, कुष्ठं–पाण्डुरोगो गल___ आयुर्वेद के आठ अंग हैं-१. कायचिकित्सा, २. शालाक्य, कोष्ठं वा, क्षयः-राजयक्ष्मा, आदिशब्दात् श्लीपद३. शल्यतंत्र, ४. अगदतंत्र, ५. भूतविद्या, ६. कौमारभृत्य, श्वयथ-गल्मादिकः सर्वोऽपि रोग इति व्यपदिश्यते। ७. रसायन, ८. वाजीकरण।-च सूत्रस्थान ३०/२८)
कासादिकस्तुआतंकः, आदिग्रहणेन श्वास-शूल-हिक्का२. चिकित्सा के चरण, चिकित्सक के गुण ज्वरातीसारादिपरिग्रहः। (बृभा १०२४ वृ) ......."चउपादा
तेइच्छा .......॥
गंडमाल, कुष्ठ-पांडुरोग अथवा स्यन्दमान कोढ, गिलाणो, पडियरगा, वेज्जो भेसज्जाणि य।
राजयक्ष्मा, श्लीपद, श्वयथु, गुल्म आदि रोग कहलाते हैं।
(निभा ३०३६ चू) कास, श्वास, हिक्का, ज्वर, अतिसार आदि को आतंक चिकित्सा के चार पाद हैं-रोगी, परिचारक, वैद्य और या व्याधि कहा जाता है। औषधि।
अथवा जो दीर्घकालस्थायी है, वह रोग है और अम्मापितीहि जणियस्स, तस्स आतंकपउरदोसेहिं। विसूचिका आदि जो सद्योघाती है, वह आतंक है। विजा देंति समाधिं, जहिं कता आगमा होति॥ .."सोलसविहो उ रोगो, वाही पुण होइ अट्ठविहो॥
(व्यभा ९४९) वेवग्गि पंगु वडभं, णिम्मणिमलसं च सक्करपमेहं। जो वैद्यकशास्त्रों के ज्ञाता हैं, उनके अभ्यासी हैं तथा बहिरंधकुंटवडभं, गंडी कोटीक्खते सूई। माता-पिता से संक्रान्त दोषों अथवा अन्य रोगजनित प्रचर जर-सास-कास डाहे, अतिसार भगंदरे य सूले य। दोषों का शमन कर आरोग्य प्रदान करते हैं, वे वैद्य हैं। तत्तो अजीरघातग, आसु विरेचा हि रोगविही॥ (धातुओं की विषमता को रोग कहा जाता है। धातु
(निभा ३६४५-३६४७) साम्य के लिए उत्तम वैद्य आदि चिकित्सा के चार पादों की
रोग के सोलह प्रकार ये हैंजो प्रवृत्ति होती है, उसे चिकित्सा कहा जाता है। प्रत्येक के १.कम्पनरोग २. भस्मकरोग ३. पंगता ४. बौनापन ५.णिम्मणि चार-चार गुण हैं
६. अलसक ७. मधुमेह ८. प्रमेह ९. बहरापन १०. अंधापन १. वैद्य के गुण-चिकित्साशास्त्र का विज्ञाता। अनेक बार ११. लूलापन १२. कुबड़ापन १३. गण्डमाला १४. कोढ रोगी और औषध प्रयोग का प्रत्यक्ष द्रष्टा। दक्ष और पवित्र। १५. क्षय १६. शोथ/श्लीपद २. औषधि के गुण-औषधियों का अधिक रूप में प्राप्त (सोलह रोगों में पांचवां प्रकार है-णिम्मणि, जो होना। व्याधिनाश में समर्थ होना। एक ही औषधि में चूर्ण, विमर्शनीय है। इसके दो रूप हो सकते हैं-१. निर्मणि
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