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आगम विषय कोश-२
२११
चिकित्सा
१८. चारित्र कब तक?
आगमसूत्रों के अनुसार यह तीर्थ (श्रमण महावीर का बउसपडिसेवगा खलु, इत्तरि छेदा य संजता दोन्नि। शासन) इक्कीस हजार वर्ष तक प्रवर्तित होगा। तुम्हारे अनुसार जा तित्थऽणुसज्जंती अस्थि हु तेणं तु पच्छित्तं॥ तो यह कथन मिथ्या हो जाएगा। (छहों अरों में ज्ञान दर्शन
(व्यभा ४१९३) होने से तीर्थ भी चिरकाल तक रहना चाहिए।) जब तक तीर्थ का अस्तित्व रहेगा, तब तक बकुश
दूसरी बात, सब गतियों में सिद्धिगमन का प्रसंग एवं प्रतिसेवना कशील निर्ग्रन्थ तथा इत्वरिक सामायिक चारित्र आयेगा, क्योंकि सम्यग् दर्शन-ज्ञान युक्त तथा चारित्ररहित और छेदोपस्थापनीय चारित्र-इन सबका अस्तित्व रहेगा। अतः
जीव सब गतियों में होते हैं। प्रायश्चित्त भी रहेंगे।
__ तीसरी बात, अनुत्तरोपपातिक देव अनुत्तर ज्ञानदर्शन
सम्पन्न होते हैं, तब वे तो नियमत: ही तद्भव सिद्धिगामी १९. चारित्र से तीर्थ की अवस्थिति
होने चाहिए। यह सब इष्ट नहीं है। फलितार्थ यह रहा कि "जं पि य दंसणनाणेहि ,जाति तित्थं ति तं सुणसु॥
जब तक चारित्र है, तब तक तीर्थ है। एवं तु भणंतेणं, सेणियमादी वि थाविया समणा।
प्रायश्चित्त के अभाव में चारित्र की शुद्धि नहीं होती। समणस्स य जत्तस्स य, नत्थी नरएस उववाओ॥
शुद्धि के अभाव में तीर्थ नहीं रहता। अचारित्र तीर्थ में साधु का जंपिय हु एक्कवीसं, वाससहस्साणि होहिती तित्थं ।
निर्वाण नहीं होता। निर्वाण के अभाव में दीक्षा निरर्थक है। ते मिच्छासिद्धी वी, सव्वगतीसुं व होजाहि॥
संयत-निर्ग्रन्थ के बिना तीर्थ और तीर्थ के बिना संयतपायच्छित्ते असंतम्मि, चरित्तं पि न वट्टति।
निर्ग्रन्थ-दोनों नहीं होते। चरित्तम्मि असंतम्मि, तित्थे नो सचरित्तया॥
अर्हतों ने छहजीवनिकाय संयम, पांच महाव्रत, पांच अचरित्ताय तित्थस्स, निव्वाणम्मि न गच्छति।
समिति और तीन गप्ति का प्रज्ञापन किया। सब साधु निव्वाणम्मि असंतम्मि, सव्वा दिक्खा निरत्थया॥
आज भी उसी की प्रज्ञप्ति करते हैं और उसकी सम्यग न विणा तित्थं नियंठेहिं, नियंठा व अतित्थगा।
आराधना भी करते हैं। छक्कायसंजमो जाव, तावऽणुसज्जणा दोण्हं ॥ सव्वण्णूहिपरूविय, छक्काय-महव्वया य समितीओ।
चिकित्सा-रोग, रोग के कारण और उसके उपशमन के
उपाय। जीवन के उपक्रम और संरक्षण की सच्चेव य पण्णवणा, संपयकाले वि साधूणं॥
प्रक्रिया। ये चानुत्तरोपपातिनो देवास्ते नियमतस्तद्भवसिद्धिगामिनो भवेयुः, तेषामनुत्तरज्ञानदर्शनोपेतत्वात्-न
१.धन्वन्तरिकृत वैद्यकशास्त्र चैतदिष्टं तस्मादिदमागतं यावच्चारित्रं तावत्तीर्थम्।
२. चिकित्सा के चरण, चिकित्सक के गुण
३. रोग और व्याधि के प्रकार (व्यभा ४२१२-४२१८ व)
४. चर्मरोग (कुष्ठ ) के प्रकार और बचने के उपाय शिष्य ने कहा-ज्ञान-दर्शन से तीर्थ चलता है। इसका
५. कृमिकुष्ठ में रत्नकंबल उपयोगी प्रतिवाद करते हुए आचार्य ने कहा
६. चर्मरोग में गृहधूम का उपयोग प्रवचन श्रमणप्रतिष्ठित होता है। ज्ञान-दर्शन से तीर्थ ७. व्रण के प्रकार की अवस्थिति हो तो तुम्हारी दृष्टि में श्रेणिक आदि भी ८. व्रणलेप के प्रकार श्रमण हो गए, क्योंकि ज्ञान-दर्शन तो उनमें भी था किन्तु ऐसा | ९. व्रणचिकित्सा के विविध साधन नहीं है। श्रमणगुणयुक्त श्रमण का नरक में उपपात नहीं १०. युद्ध और वैद्य : पुराने घुत से व्रणरोहण होता। श्रेणिक वहां उपपन्न है।
११. पादतल पर लेप
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